SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-161 जैन-तत्त्वमीमांसा-13 जैनदर्शन में सत् का स्वरूप _ जैन आगम साहित्य में वर्णित विषय-वस्तु को मुख्य रूप से जिन चार * विभागों में वर्गीकृत किया गया है, वे अनुयोग कहे जाते हैं। अनुयोग चार हैं- (1) द्रव्यानुयोग, (2) गणितानुयोग, (3) चरणकरणानुयोग और (4) धर्मकथानुयोग। इन चार अनुयोगों में से जिस अनुयोग के अन्तर्गत विश्व के मूलभूत घटकों के स्वरूप के सम्बन्ध में विवेचन किया जाता है, उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं। खगोल-भूगोल सम्बन्धी गणितानुयोग के अन्तर्गत और आचार-सम्बन्धी विधि-निषेधों का विवेचन चरणकरणानुयोग के अंतर्गत होता है और धर्म एवं नैतिकता में आस्था को दृढ़ करने हेतु सदाचारी, सत्पुरुषों के जो आख्यानक (कथानक) प्रस्तुत किये जाते हैं, वे धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत आते हैं। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि इन चार अनुयोगों में भी द्रव्यानुयोग का सम्बन्ध तात्त्विक या दार्शनिक-चिन्तन से है। जहाँ तक हमारे दार्शनिक-चिन्तन का प्रश्न है, आज हम उसे तीन भागों में विभाजित करते हैं- 1. तत्त्व-मीमांसा, 2. ज्ञानमीमांसा और 3. आचार-मीमांसा / इन तीनों में से तत्त्वमीमांसा एवं ज्ञानमीमांसा- दोनों ही द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत आते हैं। इनमें भी जहाँ तक तत्त्वमीमांसा का सम्बन्ध है, उसके प्रमुख कार्य जगत् के मूलभूत घटकों उपादानों या पदार्थों और उनके कार्यों की विवेचना करना है। तत्त्वमीमांसा का आरम्भ तभी हुआ होगा, जब मानव में जगत् के स्वरूप और उसके मूलभूत उपादानों या घटकों को जानने की जिज्ञासा प्रस्फुटित हुई होगी तथा उसने अपने और अपने परिवेश के संदर्भ में चिन्तन किया होगा। इसी चिन्तन के द्वारा तत्त्वमीमांसा का प्रादुर्भाव हुआ होगा। मैं कौन हूँ', 'कहाँ से आया हूँ 'यह जगत् क्या है, जिससे यह निर्मित हुआ है, वे मूलभूत उपादान क्या हैं, 'यह किन नियमों से नियंत्रित एवं संचालित होता है- इन्हीं प्रश्नों के समाधान हेतु ही विभिन्न दर्शनों का और उनकी तत्त्व-विषयक गवेषणाओं का जन्म हुआ। जैन-परम्परा में भी उसके प्रथम एवं प्राचीनतम आगम-ग्रंथ आचारांग का प्रारम्भ भी इसी - चिन्तना से होता है कि 'मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, इस शरीर का परित्याग
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy