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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-286 जैन-तत्त्वमीमांसा-138 सुखाना ही निर्जरा है। द्रव्य और भाव-रूप निर्जरा- निर्जरा शब्द का अर्थ है-जर्जरित कर देना, झाड देना, अर्थात् आत्म-तत्त्व से कर्म-पुद्गलों का अलग हो जाना अथवा अलग कर देना निर्जरा है। यह निर्जरा दो प्रकार की है। आत्मा का वह चैत्तसिकअवस्थारूप हेतु, जिसके द्वारा कर्म-पुद्गल अपना फल देकर अलग हो जाते हैं, भाव-निर्जरा कहा जाता है। भाव-निर्जरा आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था है, जिसके कारण कर्म-परमाणु आत्मा से अलग हो जाते हैं। यही कर्म-परमाणुओं का आत्मा से पृथक्करण द्रव्य-निर्जरा है। भाव-निर्जरा कारणरूप है और द्रव्य-निर्जरा कार्यरूप है। सकाम और अकाम-निर्जरा-निर्जरा के ये दो प्रकार भी माने गए हैं 1. कर्म जितनी काल-मर्यादा के साथ बँधा है, उसके समाप्त हो जाने. पर अपना विपाक (फल) देकर आत्मा से अलग हो जाता है, यह यथाकालनिर्जरा है। इसे सविपाक, अकाम और अनौपक मिक-निर्जरा भी कहते हैं। इसे सविपाक-निर्जरा इसलिए कहते हैं कि इसमें कर्म अपना विपाक देकर अलग होता है, अर्थात् इसमें फलोदय (विपाकोदय) होता है। इसे अकामनिर्जरा इस आधार पर कहा गया है कि इसमें कर्म के अलग करने में व्यक्ति के संकल्प का तत्त्व नहीं होता। उपक्रम शब्द प्रयास के अर्थ में आता है, इसमें वैयक्तिक-प्रयास का अभाव होता है, अत: इसे अनौपक मिक भी कहा जाता है। यह एक प्रकार से विपाक-अवधि के आने पर अपना फल देकर स्वाभाविक रूप में कर्म का अलग हो जाना है। 2. तपस्या के माध्यम से कर्मों को उनके फल देने के समय के पूर्व, अर्थात् उनकी कालस्थिति परिपक्व होने के पहिले ही प्रदेशोदय के द्वारा भोगकर बलात् अलग कर दिया जाता है, तो यह निर्जरा सकाम-निर्जरा कही जाती है, क्योंकि निर्जरित होने में समय का तत्त्व अपनी स्थिति को पूरा नहीं करता है। इसे अविपाक-निर्जरा भी कहते हैं, क्योंकि इसमें विपाकोदय या फलोदय नहीं होता है, मात्र प्रदेशोदय होता है। विपाकोदय और प'देशोदय के अन्तर को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। जब क्लोरोफार्म सुंघाकर किसी व्यक्ति की चीर-फाड की जाती है, तो उसमें उसे असातावेदनीय.(दु:खानुभूति) नामक
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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