________________ जैन धर्म एवं दर्शन-283 जैन-तत्त्वमीमांसा-135 मुक्त कैसे हुआ जाए ? जैन-दर्शन बन्धन से बचने के लिए जो उपाय करता है, उसे संवर कहते हैं। संवर का अर्थ तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार, आस्रव-निरोध संवर है। संवर मोक्ष का मूल कारण तथा नैतिक-साधना का प्रथम सोपान है। संवर शब्द 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'वृ' धातु से बना है। वृधातु का अर्थ है-रोकना या निरोध करना। इस प्रकार, संवर शब्द का अर्थ है-आत्मा में प्रवेश करने वाले कर्म-वर्गणा के पुद्गलों को रोक देना। सामान्यत; शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक-कि याओं का यथाशक्य निरोध करना (रोकना) संवर है, क्योंकि कि याएँ ही आस्रव का कारण हैं। जैन-परम्परा में संवर को कर्म-परमाणओं के आस्रव को रोकने के अर्थ में और बौद्ध-परम्परा में किया के निरोध के अर्थ में स्वीकार किया गया है, क्योंकि बौद्ध-परम्परा में कर्मवर्गणा (परमाणुओं) का भौतिक स्वरूप मान्य नहीं है, अत: वे संवर को जैन-परम्परा के अर्थ में नहीं लेते हैं। उसमें संवर का अर्थ मन, वाणी एवं शरीर के क्रिया-व्यापार या ऐन्द्रिक-प्रवृत्तियों का संयम ही अभिप्रेत है। वैसे, जैन-परम्परा में भी संवर को कायिक, वाचिक एवं मानसिककि याओं के निरोध के रूप में माना गया है, क्योंकि संवर के पाँच अंगों में अयोग (अकि या) भी एक है। यदि इस परम्परागत अर्थ को मान्य करते हुए भी थोडा ऊपर उठकर देखें, तो संवर का वास्तविक अर्थ संयम ही होता है। जैन-परम्परा में संवर के रूप में जिस जीवन-प्रणाली का विधान है, वह संयमीजीवन की प्रतीक है। स्थानांगसूत्र में संवर के पाँच भेदों का विधान पाँचों इन्द्रियों के संयम के रूप में किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में तो संवर के स्थान पर संयम को ही आस्रव-निरोध का कारण कहा गया है। वस्तुत:, संवर का अर्थ है-अनैतिक या पापकारी-प्रवृत्तियों से अपने को बचाना और संवर शब्द इस अर्थ में संयम का पर्याय ही सिद्ध होता है। बौद्ध-परम्परा में संवर शब्द का प्रयोग संयम के अर्थ में ही हुआ है। धम्मपद आदि में प्रयुक्त संवर शब्द का अर्थ संयम ही किया गया है। संवर शब्द का यह अर्थ करने में जहाँ एक ओर हम तुलनात्मक-विवेचन को सुलभ बना सकेंगे, वहीं दूसरी ओर, जैन-परम्परा के मूल आशय से भी दूर नहीं जाएंगे, लेकिन संवर का यह