________________ जैन धर्म एवं दर्शन-265 जैन-तत्त्वमीमांसा-117 का जो विवरण प्रस्तुत किया जाता है, उसमें इस प्रकार की कोई कल्पना नहीं है। वह यह भी नहीं मानता है कि पृथ्वी के नीचे नरक व ऊपर स्वर्ग है। आधुनिक खगोल विज्ञान के अनुसार, इस विश्व में असंख्य सौरमण्डल हैं और प्रत्येक सौरमण्डल में अनेक ग्रह-नक्षत्र व पृथ्वियां हैं। असंख्य सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र की अवधारणा जैन-परम्परा में भी मान्य है। यद्यपि आज तक विज्ञान यह सिद्ध नहीं कर पाया है कि पृथ्वी के अतिरिक्त किन ग्रह-नक्षत्रों पर जीवन पाया जाता है, किन्तु उसने इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया कि इस ब्रह्माण्ड में अनेक ऐसे ग्रह-नक्षत्र हो सकते हैं, जहाँ जीवन की संभावनाएं हैं, अतः इस विश्व में जीवन केवल पृथ्वी पर है- यह भी चरम सत्य नहीं है। पृथ्वी के अतिरिक्त कुछ ग्रह-नक्षत्रों पर जीवन की संभावनाएं हो सकती हैं। यह भी संभव है कि पृथ्वी की अपेक्षा कहीं जीवन अधिक सुखद एवं समृद्ध हो और कहीं यह विपन्न और कष्टकर स्थिति में हो, अतः चाहे स्वर्ग एवं नरक और खगोल एवं भूगोल-सम्बन्धी हमारी अवधारणाओं पर वैज्ञानिक-खोजों के परिणामस्वरूप प्रश्नचिह्न लगें, किन्तु इस पृथ्वी के अतिरिक्त इस विश्व में कहीं भी जीवन की संभावना नहीं है- यह बात तो स्वयं वैज्ञानिक भी नहीं कहते हैं। पृथ्वी के अतिरिक्त ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रह-नक्षत्रों पर जीवन की सम्भावनाओं को स्वीकार करने के साथ ही प्रकारान्तर से स्वर्ग एवं नरक की अवधारणाएं * भी स्थान पा जाती हैं। उड़नतश्तरियों सम्बन्धी जो भी खोजें हुई हैं, उससे इतना तो निश्चित सिद्ध ही होता है कि इस पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य ग्रह-नक्षत्रों पर भी जीवन है और वह पृथ्वी से अपना सम्पर्क बनाने के लिए प्रयत्नशील भी है। उड़न तश्तरियों के प्राणियों का यहाँ आना व स्वर्ग से देव लोगों की आने की परम्परागत कथा में कोई बहुत अन्तर नहीं है, अतः जो परलोक- सम्बन्धी अवधारणा उपलब्ध होती है, वह अभी पूर्णतया निरस्त नहीं की जा सकती, हो सकता है कि वैज्ञानिक-खोजों के परिणामस्वरूप ही एक दिन पुनर्जन्म व लोकोत्तर-जीवन की कल्पनाएं यथार्थ सिद्ध हो सकें। .जैन-परम्परा में लोक को षड्द्रव्यमय कहा गया है। ये षड्द्रव्य निम्न हैं- जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल एवं काल / इनमें से जीवन