________________ जैन धर्म एवं दर्शन-264 जैन-तत्त्वमीमांसा-116 मध्यम मार्ग अपनाने की। आज न तो विज्ञान ही चरम सत्य है और न आगम के नाम पर जो कुछ है, वही चरम सत्य है। आज न तो आगमों को नकारने से कुछ होगा और न वैज्ञानिक-सत्यों को नकारने से। विज्ञान और आगम के सन्दर्भ में आज एक तटस्थ समीक्षक-बुद्धि की आवश्यकता है। .. जैन-सृष्टिशास्त्र और जैन-खगोल-भूगोल में भी, जहाँ तक सृष्टिशास्त्र का सम्बन्ध है, वह आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं के साथ एक सीमा तक संगति रखता है। जैन-सृष्टिशास्त्र के अनुसार, सर्वप्रथम इस जगत् को अनादि और अनन्त माना गया है, किन्तु उसमें जगत् की अनादि-अनन्तता उसके प्रवाह की दृष्टि से है। इसे अनादि-अनन्त इसलिए कहा जाता है कि कोई भी काल ऐसा नहीं था, जब सृष्टि नहीं थी या नहीं होगी। प्रवाह की दृष्टि से जगत् अनादि-अनन्त होते हुए भी इसमें प्रतिक्षण उत्पत्ति और विनाश अर्थात् सृष्टि और प्रलय. का क्रम भी चलता रहता है, दूसरे शब्दों में, यह जगत् अपने प्रवाह की अपेक्षा से शाश्वत होते हुए भी इसमें सृष्टि एवं प्रलय होते रहते हैं, क्योंकि जो भी उत्पन्न होता है, उसका विनाश अपरिहार्य है। फिर भी, उसका सृष्टा या कर्ता कोई भी नहीं है। यह सब प्राकृतिक नियम से ही शासित है। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से इस पर विचार करें, तो विज्ञान को भी इस तथ्य को स्वीकार करने में आपत्ति नहीं है कि यह विश्व अपने मूल तत्त्व या मूल घटक की दृष्टि से अनादि-अनन्त होते हुए भी इसमें सृजन और विनाश की प्रक्रिया सत् रूप से चल रही है। यहाँ तक विज्ञान व जैनदर्शन- दोनों साथ जाते हैं। दोनों इस संबंध में भी एकमत हैं कि जगत् का कोई सृष्टा नहीं है और यह प्राकृतिक-नियम से शासित है, साथ ही, अनन्त विश्व में सृष्टि-लोक की सीमितता जैन-दर्शन एवं विज्ञान- दोनों को मान्य है। इन मूल-भूत अवधारणाओं में साम्यता के होते हुए भी जब हम इनमें विस्तार में जाते हैं, तो हमें जैन-आगमिक-मान्यताओं एवं आधुनिक विज्ञान- दोनों में पर्याप्त अन्तर भी प्रतीत होता है। अधोलोक, मध्यलोक एवं स्वर्गलोक की कल्पना लगभग सभी धर्म-दर्शनों में उपलब्ध होती है, किन्तु आधुनिक विज्ञान के द्वारा खगोल