________________ 14. 17. जैन धर्म एवं दर्शन-256 . जैन- तत्त्वमीमांसा-108 13. जैनदर्शन ने अनेकांतस्वरूप वस्तु के विवेचन की पद्धति स्याद्वाद बताया, जिसे वैज्ञानिक आइंस्टीन ने सापेक्षवाद-सिद्धांत के नाम से प्रसिद्ध किया है। जैनदर्शन एक लोकव्यापी महास्कंध के अस्तित्व को भी मानता है, जिसके निमित्त से तीर्थंकरों के जन्म आदि की खबर जगत् में सर्वत्र फैल जाती है, यह तथ्य आज टेलीपैथी के रूप में मान्य है। पुदगल को शक्ति-रूप में परिवर्तित किया जा सकता है, परन्तु मैटर और उसकी शक्ति को अलग नहीं किया जा सकता। 16. इंद्रिय, शरीर, भाषा आदि 6 प्रकार की पर्याप्तियों का वर्णन आधुनिक जीवनशास्त्र में कोशिकाओं और तन्तुओं के रूप में है। जीव-विज्ञान तथा वनस्पति-विज्ञान का जैन-वर्गीकरण आधुनिक जीवनशास्त्र तथा वनस्पतिशास्त्र द्वारा आंशिक रूप में स्वीकृत हो. चुका है। 18. तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित सूर्य, तारा, नक्षत्र आदि की आयु, प्रकार, अवस्थाएँ आदि का सूक्ष्म वर्णन आधुनिक सौर्य-जगत् के अध्ययन से आंशिक रूप में प्रमाणित होता है, यद्यपि कुछ अन्तर भी है। प्रयोग से प्राप्त सत्य की तरह चिन्तन से प्राप्त सत्य स्थूल आकार में सामने नहीं आता, अतः साधारणतया जनता की श्रद्धा को अपनी ओर आकृष्ट करना विज्ञान के लिए जितना सहज है, दर्शन के लिए उतना नहीं। इतना होने पर भी दोनों कितने नजदीक हैं- यह देखकर आश्चर्यचकित होना पड़ता है। श्री उत्तमचन्द जैन की उपर्युक्त तुलना का निष्कर्ष यही है कि जैन-दर्शन का परमाणुवाद आज विज्ञान के अति निकट है। आज आवश्यकता है- हम अपनी आगमिक-मान्यताओं का वैज्ञानिक-विश्लेषण कर उनकी सत्यता का परीक्षण करें। जैन-तत्त्वमीमांसा और आधुनिक विज्ञान यह सत्य है कि आधुनिक विज्ञान की प्रगति के परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मों और दर्शनों की लोक के स्वरूप एवं सृष्टि-सम्बन्धी तथा