________________ जैन धर्म एवं दर्शन-328 जैन ज्ञानमीमांसा-36 3. बाधविवर्जित या अविसंवादी। 4. अनधिगतार्थक या अपूर्व (सर्वथा नवीन)। इन चार लक्षणों में से 'अपूर्व लक्षण का प्रतिपादन माणिक्यनन्दी के पश्चात दिगम्बर-परम्परा में भी नहीं देखा जाता है। विद्यानन्द ने अकलंक और माणिक्यनन्दी की परम्परा से अलग होकर सिद्धसेन और समन्तभद्र के तीन ही लक्षण ग्रहण किये। श्वेताम्बर-परम्परा में किसी आचार्य ने प्रमाण का 'अपूर्व लक्षण प्रतिपादित किया हो, ऐसा हमारे ध्यान में नहीं आता है। यद्यपि विद्यानन्द ने माणिक्यनन्दी के 'अपूर्व लक्षण को महत्वपूर्ण नहीं माना, किन्तु उन्होंने 'व्यवसायात्मकता को आवश्यक समझा। परवर्ती श्वेताम्बर- आचार्यों ने भी विद्यानन्द का ही अनुसरण किया है। अभयदेव, वादिदेवसूरि और हेमचन्द्र - सभी ने प्रमाण-लक्षण-निर्धारण में 'अपूर्व पद को आवश्यक नहीं माना है। जैन-परम्परा में हेमचन्द्र तक प्रमाण की जो परिभाषाएँ दी गई हैं, उन्हें पं. सुखलालजी ने चार वर्गों में विभाजित किया है - ___ 1. प्रथम वर्ग में स्व-पर अवभास वाला सिद्धसेन (सिद्धर्षि ) और समन्तभद्र का लक्षण आता है, स्मरण रहे कि ये दोनों लक्षण बौद्धों एवं नैयायिकों के दृष्टिकोणों के समन्वय का फल हैं। 2. इस वर्ग में अकलंक और माणिक्यनन्दी की अनधिगत, अविसंवादि और अपूर्व लक्षण वाली परिभाषाएँ आती हैं। ये लक्षण स्पष्ट रूप से बौद्ध-मीमांसकों के प्रभाव से आए हैं। ज्ञातव्य है कि न्यायावतार में 'बाधविवर्जित' रूप में अविसंवादित्व का लक्षण आ गया है। 3. तीसरे वर्ग में विद्यानन्द, अभयदेव और वादिदेवसूरि के लक्षण वाली परिभाषाएँ आती हैं, जो वस्तुतः सिद्वसेन (सिद्धर्षि ) और समन्तभद्र के लक्षणों का शब्दान्तरण मात्र है और जिनमें अवभास पद के स्थान पर व्यवसाय या निर्णीत पद रख दिया गया है। 4. चतुर्थ वर्ग में आचार्य हेमचन्द्र की प्रमाण-लक्षण की परिभाषा आती है, जिसमें 'स्व', बाधविवर्जित, अनधिगत या अपूर्व आदि सभी पद हटाकर परिष्कार किया गया है। यद्यपि यह ठीक है कि हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण-लक्षण-निरूपण में