________________ जैन धर्म एवं दर्शन-327 जैन ज्ञानमीमांसा-35 को अपने पूर्वाचार्यों की अपेक्षा अधिक सुसंगत ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है और इसी कारण ग्रन्थ में यत्र-तत्र उनके वैदुष्य और स्वतन्त्र चिन्तन के दर्शन होते हैं, किन्तु उस सबकी चर्चा इस लघु निबन्ध में कर पाना सम्भव नहीं है। पं. सुखलालजी ने इस ग्रन्थ में हेमचन्द्र के वैशिष्ट्य की चर्चा अपने भाषा-टिप्पणों में की है, जिन्हें वहाँ देखा जा सकता है। यहाँ तो हम मात्र प्रमाण-निरूपण में हेमचन्द्र के प्रमाणमीमांसा के वैशिष्ट्य तक ही अपने को सीमित रखेंगे। प्रमाणमीमांसा में प्रमाण-लक्षण : ___ प्रमाणमीमांसा में हमचन्द्र ने प्रमाण का लक्षण ‘सम्यगर्थनिर्णयः' कह कर दिया है। यदि हम हेमचन्द्र द्वारा निरूपित इस प्रमाणलक्षण पर विचार करते हैं, तो यह पाते हैं कि यह प्रमाणलक्षण पूर्व में दिए गए प्रमाणलक्षणों से शाब्दिक-दृष्टि से तो नितान्त भिन्न ही है। वस्तुतः, शाब्दिक-दृष्टि से इसमें न तो स्व-पर-प्रकाशत्व की चर्चा है, न बाधविवर्जित या अविसंवादित्व की, जबकि पूर्व के सभी जैन-आचार्यों ने अपने प्रमाण-लक्षण-निरूपण में इन दोनों की चर्चा अवश्य की है। इसमें 'अपूर्वता' को भी प्रमाण के लक्षण के रूप में निरूपित नहीं किया गया है, जिसकी चर्चा कुछ दिगम्बर जैनाचार्यों ने की है। न्यायावतार में प्रमाण के जो लक्षण निरूपित किये गये हैं, उनमें स्व-पर-प्रकाशत्व और बाधविवर्जित होना - ये दोनों उसके आवश्यक लक्षण बताए गए हैं। न्यायावतार की इस परिभाषा में भी बाधविवर्जित अविसंवादित्व का ही पर्याय है। जैन-परम्परा में यह लक्षण बौद्ध-परम्परा के प्रभाव से गृहीत हुआ है , जिसे अष्टशती आदि ग्रन्थों में स्वीकार किया गया हैं। इसी प्रकार, मीमांसकों के प्रभाव से अनधिगतार्थक होना या अपूर्व होना भी जैन-प्रमाणलक्षण में सन्निविष्ट हो गया। अकलंक और माणिक्यनन्दी ने इसे भी प्रमाण-लक्षण के रूप में स्वीकार किया है। ___ इस प्रकार, जैन–परम्परा में हेमचन्द्र के पूर्व प्रमाण के चार लक्षण निर्धारित हो चुके थे - 1. स्व-प्रकाशक - 'स्व' की ज्ञानपर्याय का बोध कराने वाला। 2. पर-प्रकाशक - पदार्थ का बोध कराने वाला।