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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-325 जैन ज्ञानमीमांसा -33 हुए जैन प्रमाण-मीमांसा के विकास का एक चरण है। प्रमाणमीमांसा एक अपूर्ण ग्रन्थ है। न तो मूलग्रन्थ और न उसकी वृत्ति ही पूर्ण है। उपलब्ध मूल सूत्र मात्र 100 हैं और इन्हीं पर वृत्ति भी उपलब्ध है। इसका तात्पर्य यही है कि यह ग्रन्थ आचार्य हेमचन्द्र अपने जीवन काल में पूर्ण नहीं कर सके थे। इसका फलित यह भी है कि उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम चरण में ही इस कृति का लेखन प्रारम्भ किया होगा। यह ग्रन्थ भी कणादसूत्र या वैशेषिकसूत्र, ब्रह्मसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्र की तरह सूत्र-शैली का ग्रन्थ है, फिर भी इस ग्रन्थ की वर्गीकरण-शैली भिन्न ही है। आचार्य की योजना इसे पाँच अध्यायों में समाप्त करने की थी और वे प्रत्येक अध्याय को दो-दो आहिकों में विभक्त करना चाहते थे, किन्तु आज इसके मात्र दो अध्याय अपने दो-दो आह्निकों के साथ उपलब्ध हैं। अध्याय और आह्निक का यह विभाग-क्रम इसके पूर्व अक्षपाद के न्यायसूत्रों एवं जैन-परम्परा में अकलंक के ग्रन्थों में देखा जाता है। अपूर्ण होने पर भी इस ग्रन्थ की महत्ता व मूल्यवत्ता अक्षुण्ण बनी हुई है। आचार्य हेमचन्द्र ने इस ग्रन्थ के लेखन में अपनी परम्परा और अन्य दार्शनिक-परम्पराओं के न्याय सम्बन्धी ग्रन्थों का पूरा अवलोकन किया है। पं. सुखलालजी के शब्दों में, "आगमिक-साहित्य के अति विशाल खजाने के उपरान्त 'तत्त्वार्थ' से लेकर स्याद्वादरत्नाकर' तक के संस्कृत तार्किक जैन-साहित्य की भी बहुत बड़ी राशि हेमचन्द्र के परिशीलन-पथ में आई, जिससे हेमचन्द्र का सर्वांगीण सर्जक व्यक्तित्व सन्तुष्ट होने के बजाय एक ऐसे नए सर्जन की ओर प्रवृत्त हुआ, जो अब तक के जैन- वाङ्मय में अपूर्व स्थान रख सके।" वस्तुतः; नियुक्ति, विशेषावश्यकभाष्य, तत्त्वार्थ और उसका स्वोपज्ञभाष्य जैसे आगमिक एवं दार्शनिक-ग्रन्थ तथा सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, अकलंक, माणिक्यनन्दी और विद्यानन्द की प्रायः समग्र कृतियाँ इसकी उपादान सामग्री बनी हैं। पं. सुखलालजी की मान्यता है कि प्रभाचन्द्र के 'प्रमेयकमलमार्तण्ड', अनन्तवीर्य की 'प्रमेयरत्नमाला' और वादिदेवसूरि के 'स्याद्वादरत्नाकर' का इसमें स्पष्ट उपयोग हुआ है, फिर भी उनकी दष्टि में अकलंक और माणिक्यनन्दी का मार्गानुगमन प्रधानतया देखा जाता है। इसी प्रकार, बौद्ध और वैदिक-परम्परा के वे सभी ग्रन्थ,
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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