________________ जैन धर्म एवं दर्शन-451 जैन ज्ञानमीमांसा -159 नय और दुर्नय की धारणाओं के आधार पर स्याद्वाद-सिद्धांत त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र या बहुमूल्यात्मक-तर्कशास्त्र का समर्थन माना जा सकता है, किन्तु जहां तक सप्तभंगी का प्रश्न है, उसे त्रिमूल्यात्मक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें नास्ति नामक भंग एवं अवक्तव्य नामक भंग क्रमशः असत्य एवं अनियतता के सूचक नहीं हैं। सप्तभंगी का प्रत्येक भंग सत्य मूल्य का सूचक है, यद्यपि जैन-विचारकों ने प्रमाण-सप्तभंगी और नय-सप्तभंगी के रूप में सप्तभंगी के जो दो रूप माने हैं, उसके आधार पर यहाँ कहा जा सकता है कि प्रमाण-सप्तभंगी के सभी भंग सनिश्चित सत्यता और नय-सप्तभंगी के सभी भंग सम्भावित या आंशिक सत्यता का प्रतिपादन करते हैं। असत्य का सूचक तो केवल दुर्नय ही है। अतः, सप्तभंगी त्रिमूल्यात्मक नहीं है। यह तो अनेकांत के सैद्धान्तिक-पक्ष की चर्चा हुई, अब हम उसके व्यावहारिक- पक्ष की चर्चा करेंगे। अनेकान्तवाद का व्यावहारिक-पक्ष . अनेकान्तवाद का व्यावहारिक-जीवन में क्या मूल्य और महत्व है, इसका यदि ऐतिहासिक-दृष्टि से अध्ययन करें, तो हमें सर्वप्रथम उसका उपयोग विवाद-पराड्.मुखता के साथ-साथ परपक्ष की अनावश्यक आलोचना व स्वपक्ष की अतिरेक प्रशंसा से बचना है। इस प्रकार का निर्देश हमें सर्वप्रथम सूत्रकृतांग (1/1/2/23) में मिलता है, जहाँ यह कहा गया है कि जो अपने पक्ष की प्रशंसा और पर-पक्ष की निन्दा में रत हैं, वे दूसरों के प्रति द्वेष-वृत्ति का विकास करते हैं, परिणामस्वरूप संसार में भ्रमण करते हैं, साथ ही, महावीर चाहते थे कि अनेकान्त-शैली के माध्यम से कथ्य का सम्यक रूप से स्पष्टीकरण हो और इस तरह का प्रयास उन्होंने भगवतीसूत्र में अनैकान्तिक-उत्तरों के माध्यम से किया है, जैसे- जब उनसे पूछा गया कि सोना अच्छा है या जागना, तो उन्होंने कहा कि पापियों का सोना व धार्मिकों का जागना अच्छा है। जैन-दार्शनिकों में इस अनेकान्तदृष्टि का व्यावहारिक-प्रयोग सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने किया। उन्होंने उद्घोष किया कि संसार के एकमात्र गुरु उस अनेकान्तवाद