________________ जैन धर्म एवं दर्शन-414 जैन ज्ञानमीमांसा-122 गुणधर्मों की एक ही साथ स्वीकृति तार्किक-दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं होगी, तो उन्होंने उस परमतत्त्व को अनिर्वचनीय या अवक्तव्य भी मान' लिया। तैत्तरीय उपनिषद् (2) में यह कहा गया है कि वहाँ वाणी की पहुँच नहीं है और उसे मन के द्वारा भी प्राप्त नहीं किया जा सकता (यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्यमनसा सह)। इससे ऐसा लगता है कि उपनिषद् -काल में सत्ता के सत्, असत्, उभय और अवक्तव्य/अनिर्वचनीय-ये चारों पक्ष स्वीकृत हो चुके थे, किन्तु औपनिषदिक-ऋषियों की विशेषता यह है कि उन्होंने उन विरोधों के समन्वय का मार्ग भी प्रशस्त किया। इसका सबसे उत्तम प्रतिनिधित्व हमें ईशावास्योपनिषद् (4) में मिलता है। उसमें कहा गया है "अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनदेवा आप्नुवन्पूर्वमर्शत्". अर्थात्, वह गतिरहित है, फिर भी मन से एवं देवों से तेज गति करता है। "तदेजति तन्नेजति तदूरे तद्वन्तिके, अर्थात्, वह चलता है और नहीं भी चलता है, वह दूर भी है, वह पास भी है। इस प्रकार, उपनिषदों में जहाँ विरोधी प्रतीत होने वाले अंश हैं, वहीं उनमें समन्वय को मुखरित करने वाले अंश भी प्राप्त होते हैं। परमसत्ता के एकत्व- अनेकत्व, जड़त्व-चेतनत्व आदि विविध आयामों में से किसी एक को स्वीकार कर उपनिषद्-काल में अनेक दार्शनिक-दृष्टियों का उदय हुआ। जब ये दृष्टियाँ अपने-अपने मन्तव्यों को ही एकमात्र सत्य मानते हुए दूसरे का निषेध करने लगी, तब सत्य के गवेषकों को एक ऐसी दृष्टि का विकास करना पड़ा, जो सभी की सापेक्षिक-सत्यता को स्वीकार करते हुए उन विरोधी विचारों का समन्वय कर सके। यह विकसित दृष्टि अनेकान्त-दृष्टि है, जो वस्तु में प्रतीति के स्तर पर दिखाई देने वाले विरोध के अन्तस् में अविरोध को देखती है और सैद्धान्तिक द्वन्द्वों के निराकरण का एक व्यावहारिक एवं सार्थक समाधान प्रस्तुत करती है। इस प्रकार, अनेकान्तवाद विरोधों के शमन का एक व्यावहारिक-दर्शन है। वह उन्हें समन्वय के सूत्र में पिरोने का सफल प्रयास करता है। - ईशावास्य में पग-पग अनेकान्त जीवन-दृष्टि के संकेत प्राप्त होते हैं। वह अपने प्रथम श्लोक में ही "त्येन त्यक्तेन भुण्जीथा मा गृधः