________________ जैन धर्म एवं दर्शन-413 जैन ज्ञानमीमांसा -121 है कि 'वह स्थूल भी नहीं है और सूक्ष्म भी नहीं है। वह हृस्व भी नहीं और दीर्घ भी नहीं है। इस प्रकार, यहाँ हमें स्पष्टतया एकान्तवाद का निषेध प्राप्त होता है। एकान्त के निषेध के साथ-साथ सत्ता में परस्पर विरोधी गुणधर्मों की उपस्थिति के संकेत भी हमें उपनिषदों में मिल जाते हैं। तैत्तिरीयोपनिषद् (2:6) में कहा गया है कि वह परम सत्ता मूर्त-अमूर्त, वाच्य–अवाच्य, विज्ञान (चेतन) अविज्ञान (जड़), सत्-असत्- रूप है। इसी प्रकार, कठोपनिषद् (1 : 20) में उस परम सत्ता में सूक्ष्मता और महत्ता-दोनों ही परस्पर विरोधी धर्म एक साथ स्वीकार करने का अर्थ अनेकान्त की स्वीकृति के अतिरिक्त क्या हो सकता है? पुनः, उसी उपनिषद् (3: 12) में एक सत्ता को गुण की अपेक्षा भी सूक्ष्म व महान् की अपेक्षा भी महान् कहा गया है। यहाँ परम सत्ता में सूक्ष्मता और महत्ता-दोनों ही परस्पर विरोधी धर्म एक साथ स्वीकार करने का अर्थ अनेकान्त की स्वीकृति के अतिरिक्त क्या हो सकता है? पुनः, उसी उपनिषद (3 : 12) में एक ओर आत्मा को ज्ञान का विषय बताया गया है, वहीं दूसरी ओर, उसे ज्ञान का अविषय बताया गया है। जब इसकी व्याख्या का प्रश्न आया, तो आचार्य शंकर को भी कहना पड़ा कि यहाँ अपेक्षा–भेद से जो अज्ञेय है, उसे ही सूक्ष्म ज्ञान का विषय बताया गया है। यही उपनिषद्कारों का अनेकान्त है। इसी प्रकार, श्वेताश्वतरोपनिषद् (1. 7) में भी उस परम सत्ता को क्षर एवं अक्षर, व्यक्त एवं अव्यक्त-ऐसे परस्पर विरोधी धर्मों से युक्त कहा गया है। यहाँ भी सत्ता या परमतत्त्व की बहुआयामिता या अनैकान्तिकता स्पष्ट होती है। मात्र यही नहीं, यहाँ परस्पर विरुद्ध धर्मों की एक साथ स्वीकृति इस तथ्य का प्रमाण है कि उपनिषद्कारों की शैली अनेकान्तात्मक रही है। यहाँ हम देखते हैं कि उपनिषदों का दर्शन जैनदर्शन के समान ही सत्ता में परस्पर विरोधी गुणधर्मों को स्वीकार करता प्रतीत होता है / मात्र यही नहीं, उपनिषदों में परस्पर विरोधी मतवादों के समन्वय के सूत्र भी उपलब्ध होते हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि उपनिषद्कारों ने न केवल एकान्त का निषेध किया, अपितु सत्ता में परस्पर विरोधी गुणधर्मों को स्वीकृति भी प्रदान की। जब औपनिषदिक- ऋषियों को यह लगा होगा कि परमतत्त्व में परस्पर विरोधी