________________ जैन धर्म एवं दर्शन-555 - जैन- आचार मीमांसा-87 या बाह्य मूल्यों की अपेक्षा उच्च हैं। दूसरा सिद्धान्त यह है कि अस्थायी मूल्यों की अपेक्षा स्थायीमूल्य उच्च हैं और तीसरा सिद्धान्त यह है कि उत्पादक-मूल्य अनुत्पादक-मूल्यों की अपेक्षा उच्च हैं। ___अरबन इन्हें व्यावहारिक-विवेक के सिद्धान्त या मूल्य के नियम कहते हैं। ये हमें बताते हैं कि आंगिक-मूल्यों, जिनमें आर्थिक, शारीरिक और मनोरंजनात्मक मूल्य समाहित हैं, की अपेक्षा सामाजिक-मूल्य, जिसमें साहचर्य और चारित्र के मूल्य भी समाहित हैं, उच्च प्रकार के हैं। उसी प्रकार, सामाजिक-मूल्यों की अपेक्षा आयात्मिक-मूल्य, जिनमें बौद्धिक, सौन्दर्यात्मक और धार्मिक-मूल्य भी समाहित हैं, उच्च प्रकार के हैं। अरबन की दृष्टि में मूल्यों की इसी क्रम अवस्था के आधार पर आत्मसाक्षात्कार के स्तर हैं। आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रस्थित आत्मा की पूर्णता उस स्तर पर है, जिसे मूल्यांकन करने वाली चेतना सर्वोच्च मूल्य समझती है और सर्वोच्च मूल्य वह है, जो अनुभूति की पूर्णता में तथा जीवन के सम्यक् संचालन में सबसे अधिक योगदान करता है। जैन-दृष्टि में इसे हम वीतरागता और सर्वज्ञता की अवस्था कह सकते हैं। - एक अन्य आध्यात्मिक मूल्यवादी-विचारक डब्ल्यू.आर. सार्ली जैन-परम्परा के निकट आकर यह कहते हैं कि नैतिक–पूर्णता ईश्वर के समान बनने में है, किन्तु जैन-परम्परा इससे भी आगे बढ़कर यह कहती है कि नैतिक-पूर्णता परमात्मा बनने में ही है। आत्मा से परमात्मा, जीव से जिन, साधक से सिद्ध, अपूर्ण से पूर्ण की उपलब्धि में ही नैतिक-जीवन की सार्थकता है। __ अरबन की मूल्यों की क्रम-व्यवस्था भी जैन-परम्परा के दृष्टिकोण के निकट ही है। जैन एवं अन्य भारतीय-दर्शनों में भी अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष–पुरुषार्थों में यही क्रम स्वीकार किया गया है। अरबन के आर्थिक-मूल्य अर्थपुरुषार्थ के, शारीरिक एवं मनोरंजनात्मक-मूल्य कामपुरुषार्थ के, साहचर्यात्मक और चारित्रिक-मूल्य धर्मपुरुषार्थ के तथा सौन्दर्यात्मक, ज्ञानात्मक और धार्मिक-मूल्य मोक्षपुरुषार्थ के तुल्य हैं। भारतीय-दर्शनों में जीवन के चार मूल्य जिस प्रकार पाश्चात्य-आचारदर्शन में मूल्यवाद का सिद्धान्त लोकमान्य