________________ जैन धर्म एवं दर्शन-554 जैन- आचार मीमांसा-86 पर आते हैं। अरबन के अनुसार नैतिक-दृष्टि से मूल्यवान् होने का अर्थ है- मनुष्य के लिए मूल्यवान् होना / नैतिक-शुभत्व मानवीय मूल्यांकन के सिद्धान्त पर निर्भर है। मानवीय मूल्यांकन के सिद्धान्त को कुछ लोगों ने आकारित-नियमों की अवस्था के रूप में और कुछ लोगों ने सुख की गणना के रूप में देखा था, लेकिन अरबन के अनुसार मानवीय मूल्यांकन के सिद्धान्त का तीसरा एकमात्र सम्भावित विकल्प है- 'आत्मसाक्षात्कार / आत्मसाक्षात्कार के सिद्धान्त के समर्थन में अरबन अरस्तू की तरह की तर्क प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि वस्तुओं का शुभत्व उनकी कार्यकुशलता में है, अंगों का शुभत्व जीवन में उनके योगदान में है और जीवन का शुभत्व आत्मपूर्णता में है। मनुष्य एक चेतन 'आत्म' है और यदि यह सत्य है, तो फिर मानव का वास्तविक शुभ उसकी आत्मपरिपूर्णता में ही निहित है। अरबन की यह दृष्टि जैन-परम्परा के अति निकट है, जो यह स्वीकार करती है कि आत्मपूर्णता ही नैतिक-जीवन का लक्ष्य है। ___ अरबन के अनुसार 'आत्म सामाजिक-जीवन से अलग कोई व्यक्ति नहीं है, वरन् वह तो सामाजिक-मर्यादाओं में बँधा हुआ है और समाज को अपने मूल्यांकन से और अपने को सामाजिक-मूल्यांकन से प्रभावित पाता है। इस सम्बन्ध में जैन- दृष्टिकोण थोड़ा भिन्न है, क्योंकि जैन-परम्परा व्यक्तिवाद के अधिक निकट है। अरबन के अनुसार स्वहित और परहित की समस्या का सही समाधान न तो परिष्कारित स्वहितवाद में है और न बौद्धिक-परहितवाद में है, वरन सामान्य शुभ की उपलब्धि के रूप में स्वहित और परहित से ऊपर उठ जाने में है। यह दृष्टिकोण जैन-परम्परा में भी ठीक इसी रूप में स्वीकृत रहा है। जैन-परम्परा भी स्वहित और लोकहित की सीमाओं से ऊपर उठ जाना ही नैतिक-जीवन का लक्ष्य मानती है। अरबन इस समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करते हैं कि मूल्यांकन करने वाली मानवीय-चेतना के द्वरा यह कैसे जाना जाए कि कौन-से मूल्य उच्च कोटि के हैं और कौन से मूल्य निम्न कोटि के? अरबन इसके तीन सिद्धान्त बताते हैं पहला सिद्धान्त यह है कि साध्यात्मक या आन्तरिक-मूल्य साधनात्मक