________________ जैन धर्म एवं दर्शन-550 जैन - आचार मीमांसा -82 केन्द्र हैं। धर्म, दर्शन, कला एवं सामाजिक-संस्थाएँ, सभी विकासमान् आर्थिक-प्रक्रिया पर आश्रित हैं और इसी विकासमान आर्थिक-प्रक्रिया में ही नैतिक-प्रत्ययों की सार्थकता निहित है। इस प्रकार, साम्यवादी-दृष्टिकोण अर्थप्रधान है, लेकिन इसके विपरीत, जैन-दर्शन के अनुसार नैतिक-प्रगति का केन्द्र आत्मा है। मार्क्सवाद अपने नैतिक-दर्शन में अध्यात्म एवं धर्म को . इसलिए कोई स्थान नहीं देना चाहता कि अध्यात्म तथा धर्म की ओट में बुराईयाँ पनपती हैं, लेकिन यदि धार्मिक एवं आध्यात्मिक-जीवन बुराइयों के पनपने की सम्भावना के कारण त्याज्य है, तो फिर आर्थिक-जीवन में भी तो बुराईयाँ पनपती हैं, उसे क्यों नहीं छोड़ा जाता? मार्क्सवादी-दर्शन जिस भय से धार्मिक एवं आध्यात्मिक-जीवन का परित्याग करता है, जैन-दर्शन उसी भय से अर्थप्रधान-जीवन को हेय मानता है। वास्तविक दृष्टि यह होनी चाहिए कि जिन कारणों से बुराइयों का निराकरण करना साम्यवाद या मार्क्सवाद का ध्येय है, उसी प्रकार ही जैन-दर्शन धर्म एवं अध्यात्म के क्षेत्र की बुराइयों के निराकरण का प्रयास करता है। दोनों ही बुराइयों के निराकरण के लिए प्रयत्नशील हैं, परन्तुं दोनों के दृष्टिकोण भिन्न हैं। फिर भी, जैन-दर्शन आर्थिक क्षेत्र में उत्पन्न बुराइयों के निराकरण को अपनी दृष्टि से ओझल नहीं करता। वह आर्थिक क्षेत्र की बुराइयों का मूल कारण व्यक्ति के आध्यात्मिक-पतन में ही देखता है और उसके निराकरण का प्रयत्न करता है। वस्तुतः, सामाजिक-विषमता का मूल आर्थिक-जीवन में नहीं, वरन् आध्यात्मिक-जीवन में ही है। यदि आर्थिक-विकास ही सामाजिक- व्यवस्था के परिवर्तन का आधार है, तो आज के सम्पन्न राष्ट्र अर्थलोलुपता से मुक्त क्यों नहीं हैं? आज के सम्पन्न व्यक्ति एवं राष्ट्र उतने ही अर्थलोलुप हैं, जितने आदिम युग के कबीले थे। अतः सामाजिक-विषमता का निराकरण अर्थप्रधान-दृष्टि में नहीं, वरन् हमारी आध्यात्मिक एवं धार्मिक जीवन-दृष्टि में ही सम्भव है। भोगमय एवं त्यागमय जीवनदृष्टि में अन्तर- मार्क्सवादी नैतिक-दर्शन और जैन-आचारदर्शन में एक मौलिक अन्तर यह है कि जहाँ जैन-दर्शन संयम पर जोर देता है, वहाँ साम्यवाद में संयम या वासनाओं के नियन्त्रण का कोई स्थान नहीं है। भोगमय-दृष्टि में