________________ जैनधर्म एवं दर्शन-524 जैन - आचार मीमांसा-58 में भी कहा गया है कि सभी जीवित रहना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता। इस प्रकार, जीवनरक्षण को एक प्रमुख तथ्य माना गया है। जैनदर्शन का अहिंसा सिद्धान्त भी इसी जीवनरक्षण एवं जीवन के परममूल्य की धारणा पर अधिष्ठित है। सूत्रकृतांग में भी इसी विकासवादी-दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अपने जीवन के कल्याण का जो उपाय जान पड़े, उसे शीघ्र ही पण्डितपरुषों से सीख लेना चाहिए। स्पेन्सर आचरण के शुभत्व और अशुभत्व का आधार जीवनवर्द्धकता को मानते हुए कहता है कि अच्छा आचरण जीवनवृर्द्धक और बुरा आचरण जीवन के जीवन के विनाश का कारण है। जैन दर्शन के अनुसार भी आचरण के शुभत्व और अशुभत्व का प्रमापक अहिंसा का सिद्धान्त है। आचार्य अमृतचन्द्र ने जैन नैतिकता के सभी नियमों को इसी अहिंसा के सिद्धान्त से निर्गमित किया है। अहिंसा का सिद्धान्त भी यही कहता है कि जो आचरण जीवन के विनाश से निर्गमित होता है ही, वह अनैतिक है। अहिंसा का सिद्धान्त भी यही है कि जो आचरण जीवन के विनाश का कारण है, वह अशुभ है और जो आचरण जीवन के रक्षण का कारण है, वह शुभ है। इस प्रकार, स्पेन्सर के दृष्टिकोण से जैन दर्शन की साम्यता सिद्ध होती है। यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि स्पेन्सर जीवनरक्षण को शुभत्व का आधार मानते हुएभी अहिंसा के सूक्ष्म सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं करता। उसके सिद्धान्त में जीवन के सभी रूपों को वह समानता नहीं दी गई है,जो कि जैन दर्शन के अहिंसा-सिद्धान्त में है। न केवल जैन दर्शन में, वरन् बौद्ध और वैदिक दर्शनों में भी जीवन के मूल्य को स्वीकार किया है और कहा गया है कि जीवन का रक्षण वरेण्य है। कौषीतकि-उपनिषद् में कहा गया है कि निःश्रेयस मात्र प्राण में है। चाणक्य ने भी कहा है कि धन और स्त्री की अपेक्षा भी आत्मा (जीवन) की सदैव रक्षा करनी चाहिए। बुद्ध ने भी जीवनरक्षण को आवश्यक कहा है। धम्मपद में बुद्ध कहते हैं कि अपने को प्रिय समझा है, तो अपने को सुरक्षित रखना चाहिए। विकासवादी आचारदर्शन का दूसरा प्रमुख प्रत्यय समायोजन है।