________________ जैन धर्म एवं दर्शन-522 जैन- आचार मीमांसा-54 तात्त्विक प्रकृति के अंग के रूप में साध्य अवश्य हैं, लेकिन इसके साथ ही हमारी सात्विक प्रकृति के अन्य पक्ष भी समान रूप से नैतिक-साध्य बनने की अपेक्षा रखते हैं। सुखवाद चेतना के मात्र अनुभूत्यात्मक पक्ष को स्वीकार करता है और उसके बौद्धिक पक्ष की अवहेलना करता है। यही उसका एकांगीपन है। जैन-दार्शनिक सुखवाद को स्वीकार करते हुए भी चेतना के बौद्धिक एवं ज्ञानात्मक पक्ष की अवहेलना नहीं करते और इस रूप में वे सुखवादी विचारणा की तत्त्व चर्चा करते हुए भी आलोचना के पात्र नहीं बनते हैं। अरस्तू का मात्रा का मानक और जैन दर्शन- पाश्चात्य विचारकों में अरस्तु का नाम अग्रगण्य है। अरस्तू नैतिक दर्शन में शुभ का प्रतिमान 'स्वर्णिम माध्य' माना गया है। अरस्तू के अनुसार प्रत्येक गुण अपनी मध्यावस्था में ही नैतिक शुभ होता है। उसने सद्गुण और दुर्गुण की कसौटी के रूप में इसी ‘स्वर्णिम माध्य' को स्वीकार किया है। समार्ग मध्यमार्ग है। उदाहरणार्थ, साहस सद्गुण है, जो कायरता और उग्रता की मध्यावस्था है। कायरता और सदैव संघर्षरत रहना दोनों ही अवगुण हैं। 'आदर्श' इन दोनों के मध्य में है, जिसे 'साहस' कहा जाता है। इसी प्रकार, सांसारिक सुखों में अनुसरण के रूप में अत्यधिक भोग-विलास और विरक्ति के रूप में तप–मार्ग या देह-दण्डन-दोनों अनुचित हैं। संयम दोनों की म यावस्था के रूप में सद्गुण है। यद्यपि मात्रात्मक मानक की इस धारणा के सम्बन्ध में कुछ अपवाद स्वयं अरस्तू ने भी स्वीकार किए हैं। __ जैन दर्शन में अरस्तू के इस मात्रात्मक मानक दृष्टिकोण का समर्थन आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन नामक ग्रन्थ में भी मिलता है। वे लिखते हैं कि सुख का अनुभव बुरा नहीं है, लेकिन उसके पीछे जो वासना है, वह बुरी है। सुख-भोग से कोई पाप नहीं होता, पाप होता है सुख-भोग की वासना के कारण, क्योंकि यह वासना सम्यक् दृष्टिकोण की घातक है। वासना से सम्यक्त्व का नाश होता है, जबकि सम्यक्त्व सुख का हेतु है। वासना मात्रातिक्रमण की ओर ले जाती है और यही मात्रातिक्रमण पाप है। . आचार्य इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए मिठाई का उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि 'अजीर्ण' मिष्ठान्न भोजन से नहीं होता, वह होता है उसकी