________________ जैन धर्म एवं दर्शन-520 - जैन- आचार मीमांसा-52 जर्मन विचारक जी. सीमेल कहते हैं, 'शुद्ध अर्थ में अपने अस्तित्व के अतिरिक्त मेरा कुछ भी नहीं है, अतः जो अपना नहीं है, उसे छोड़ देना, उससे निवृत्त होना निष्क्रमण-सुख और जो 'स्व' है, उसे पा लेना अस्तित्व-सुख है। इसे हम शुद्धात्मदशा कह सकते हैं, जिसमें आत्मा विभावदशा से स्वभावदशा में आ जाती है ओर आत्मा के निजगुण प्रकट हो जाते हैं। यही शुद्ध आत्मदशा अस्तित्वसुख है। वस्तुतः, निष्क्रमणसुख और अस्तित्वसुख एक ही अवस्था के दो पहलू हैं- पहला निषेधात्मक पहलू है, दूसरा भावात्मक पहलू | जो स्वभाव नहीं है, उसे छोड़ने से जो सुख होता है, वह निष्क्रमणसुख है और जो 'स्व' है, उसके 'पर' के अभाव में शुद्ध रूप में रहने से जो सुख मिलता है, वह अस्तित्वसुख है। ‘पर भाव को छोड़ना निष्क्रमण सुख है और 'स्व' स्वभाव में रमण करना अस्तित्वंसुख है। निष्क्रमण, निस्पृहता, या वीतरागता या अनासक्ति के द्वारा 'पर' भाव को छोड़ने और 'स्व' स्वभाव में रमण करने का जो सुख है, उसे जैनदर्शन के अनुसार उच्चतम नैतिक या चारित्रिक-सुख कहा जा सकता है। यद्यपि यह उच्चतम नैतिक सुख है, तथापि यह भी साध्य नहीं है, साधन ही है। नैतिक जीवन स्वयं एक साधन है। नैतिक जीवन का साध्य हैअनाबाध सुख। यही सर्वोच्च सुख है, यही नैतिकता का आदर्श है। अनाबाध सुख वास्तविक पूर्णता है, मुक्ति है। जिसमें जन्म, जरा एवं मरण आदि समस्त बाधाओं को अभाव हो, जहाँ समस्त आत्मगुण अनाबाध रूप से प्रकट हों, वही अनाबाध सुख हैं। ___ यदि हम जैन नैतिकता को किसी विशेष अर्थ में सुखवाद के नाम से पुकारना उचित समझें, तो उसके नैतिक-आचरण का चरमादर्श इस अनाबाध सुख की उपलब्धि ही है, यह मानना होगा। अनाबाध सुख वस्तुतः आध्यात्मिक-आनन्द की वह अवस्था है, जिसमें हम शुद्ध एवं पूर्ण आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करते हैं। दुःख का कारण तनाव है और तनाव का कारण राग-द्वेष रूप तनाव को समाप्त कर देता है और अर्हत् या वीतराग–अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तो उसे इस वास्तविक सुख का अनन्तवाँ भाग भी नहीं होते, अर्थात् वीतराग के सुख की अपेक्षा लौकिक-सुख न कुछ के बराबर है।