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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-505 जैन- आचार मीमांसा-37 श्रद्धा नैतिकता का प्रतिमान है। गीता में कहा गया है कि पुरुष श्रद्धामय है और उसकी जैसी श्रद्धा होती है, उसी के अनुरूप वह हो जाता है। गीता के इस कथन का रस्किन के रुचि-सिद्धान्त से बहुत कुछ साम्य है। जैन-परम्परा के सम्यग्दर्शन को रस्किन के रुचि सिद्धान्त के तुल्य माना जा सकता है, अन्तर यही है कि जैन-परम्परा सम्यग्दर्शन (भावात्मक श्रद्धा) पर और रस्किन रुचि पर बल देते हैं। फिर भी, दोनों के अनुसार वही नैतिकता का निर्णायक-प्रतिमान है, यह महत्त्व की बात है। रसेन्द्रियवाद या रुचि-सिद्धान्त की मूलभूत कमजोरी यह है कि वह शिव और सुन्दर में अन्तर स्थापित नहीं कर पाता। जैन-विचारकों ने इस कइिनाई को समझा था और इसीलिए उन्होंने सम्यग्दर्शन को महत्वपूर्ण मानते हुए भी उसे सम्यक्चारित्र से अलग किया। यह ठीक है कि रुचि या दृष्टि के आधार पर चारित्र का निर्माण होता है। फिर भी, दोनों ही पृथक्-पृथक् पक्ष हैं। उनको एक-दूसरे से मिलाने की गलती नहीं करनी चाहिए। (इ) सहानुभूतिवाद और जैन-दर्शन- सहानुभूतिवाद आन्तरिकविधानवाद का एक प्रमुख प्रकार है। इसके अनुसार अन्तर्दृष्टि या प्रज्ञा सहानुभूत्यात्मक है। सहानुभूति वह तत्त्व है, जो सद्गुण का मूल्यांकन करता है और जिसके आधार पर किसी कर्म को सद्गुण कहा जाता है। सहानुभूति सद्गुण का आधार और स्रोत-दोनों ही है। एडमस्मिथ इस दृष्टिकोण के प्रमुख प्रतिपादक हैं। समकालीन मानवतावादी विचारक भी इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं। रसल प्रभृति कुछ विचारक मानव में निहित इसी सहानुभूति के तत्त्व के आधार पर नैतिकता की व्याख्या करते हैं। उनके अनुसार नैतिकता ईश्वरीय-आदेश या पारलौकिक-जीवन के प्रति प्रलोभन या भय पर निर्भर नहीं है, वरन् मानव की प्रकृति में निहित सहानुभूति के तत्त्व पर निर्भर है। जैनदर्शन से इस दृष्टिकोण की तुलना करने पर हम यह पाते हैं कि जैनविचारकों ने भी मानव में निहित इस सहनुभूति के तत्व को स्वीकार किया है। उनके अनुसार तो सभी प्राणियों में परस्पर सहयोग की वृत्ति स्वाभाविक है, लेकिन सहानुभूति का तत्त्व 'प्राणी-प्रकृति का अंग होते हुए भी सभी में समान रूप से नहीं पाया जाता
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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