________________ जैन धर्म एवं दर्शन-738 जैन - आचार मीमांसा -270 . हमारे सामाजिक-जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। मोक्ष मात्र एक मरणोत्तर अवस्था नहीं है, अपितु वह हमारे जीवन से सम्बन्धित है। मोक्ष को पुरुषार्थ माना गया है। इसका तात्पर्य यह है कि वह इसी जीवन में प्राप्तव्य है। जो लोग मोक्ष को एक मरणोत्तर-अवस्था मानते हैं , वे मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। आचार्य शंकर लिखते हैं देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलोः। अविद्याहृदयग्रन्थिमोक्षो मोक्षो यतस्ततः // 18 मरणोत्तर-मोक्ष या विदेह-मुक्ति साध्य नहीं है। उसके लिए कोई साधना अपेक्षित नहीं है। जिस प्रकार मृत्यु जन्म लेने का अनिवार्य परिणाम है, उसी प्रकार विदेह-मुक्ति तो जीवन-मुक्ति का अनिवार्य परिणाम है, अतः जो प्राप्तव्य है, जो पुरुषार्थ है और जो साध्य है वह तो जीवन-मुक्ति ही है। जीवन-मुक्ति के प्रत्यय की सामाजिक-सार्थकता से हम इन्कार भी नहीं कर सकते, क्योंकि जीवन-मुक्त एक ऐसा व्यक्तित्व है, जो सदैव लोक-कल्याण के लिए प्रस्तुत रहता है। जैन-दर्शन में तीर्थंकर, बौद्ध-दर्शन में अर्हत् एवं बोधिसत्व और वैदिक-दर्शन में स्थित प्रज्ञ की जो धारणाएँ प्रस्तुत की गई हैं और उनके व्यक्तित्व को जिस रूप में चित्रित किया गया है, उससे हम निश्चय ही उस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक-उपादेयता भी है। वह लोक-मंगल और मानव-कल्याण का एक महान् आदर्श माना जा सकता है, क्योंकि जन-जन का दुःखों से मुक्त होना ही मुक्ति है, मात्र इतना ही नहीं, भारतीय-चिन्तन में वैयक्तिक-मुक्ति की अपेक्षा भी लोक कल्याण के लिए प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्व दिया गया है / बौद्ध-दर्शन में बोधिसत्व का और गीता में स्थितप्रज्ञ का जो आदर्श प्रस्तुत किया गया है, वह हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि केवल वैयक्तिक-मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है। बोधिसत्व तो लोकमंगल के लिए अपने बन्धन और दुःख की कोई परवाह नहीं करता है। वह कहता है - बहुनामेकदुःखेन यदि दुःखं विगच्छति / उत्पाद्यमेव तद् दुःखं सदयेन परात्मनो / मुच्यमानेषु सत्त्वेषु ये ते प्रमोद्यसागराः। तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षेणारसिकेन किम् // " यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो करुणापूर्वक उनके दुःख दूर करना ही अच्छा है। प्राणियों को दुःखों से मुक्त होता हुआ देखकर जो आनन्द प्राप्त होता है, वही क्या कम है, फिर नीरस मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है ? वैयक्तिक-मुक्ति की धारणा की आलोचना करते हुए और जन-जन की मुक्ति के