________________ जैन धर्म एवं दर्शन-734 जैन - आचार मीमांसा -266 है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व हैं, इनके कारण भी सामाजिक जीवन में विषमता उत्पन्न होती है। शासक और शासित, अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि की श्रेष्ठता-निम्नता के मूल में यही कारण है। वर्तमान में बड़े राष्ट्रों में जो अपने प्रभावक-क्षेत्र बनाने की प्रवृत्ति है, उसके मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहं की पुष्टि का प्रयत्न है। स्वतन्त्रता के अपहार का प्रश्न इसी स्थिति में होता है। जब व्यक्ति के मन में आधिपत्य की वृत्ति या शासन की भावना उबुद्ध होती है, तो वह दूसरे के अधिकारों का हनन करता है, अपहरण करता है। जैन-दर्शन अहंकार (मान) प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक-परतन्त्रता को समाप्त करता है। दूसरी ओर, जैन-दर्शन का अहिंसा-सिद्धान्त भी सभी प्राणियों के समान अधिकारों को स्वीकार करता है। अधिकारों का हनन भी एक प्रकार की हिंसा है, अतः अहिंसा का सिद्धान्त स्वतन्त्रता के सिद्धान्त के साथ जुड़ा हुआ है। जैन एवं बौद्ध दर्शन एक ओर अहिंसा-सिद्धांत के आधार पर व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का पूर्ण समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर समता के आधार पर वर्गभेद, जातिभेद एवं ऊँच-नीच की भावना को समाप्त करते हैं। सामाजिक-जीवन में विषमता उत्पन्न होने के चार मूलभूत कारण हैं - 1. संग्रह (लोभ), 2. आवेश (क्रोध), 3. गर्व (बड़ा मानना) और 4. माया (छिपना), जिन्हें जैन धर्म में चार कषाय कहा जाता है। ये चारों अलग-अलग रूप में सामाजिक - जीवन में विषमता, संघर्ष एवं अशान्ति के कारण बनते हैं। 1. संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रामाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार, क्रूर-व्यवहार, विश्वासघात आदि विकसित होते हैं। 2. आवेश की मनोवृत्ति के कारण संघर्ष, युद्ध, आक्रमण एवं हत्याएँ आदि होते हैं। 3. गर्व की मनोवृत्ति के कारण घृणा और क्रूर व्यवहार होता है। 4. माया की मनोवृत्ति के कारण अविश्वास एवं मैत्रीपूर्ण व्यवहार उत्पन्न होता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-दर्शन में जिन्हें चार कषाय कहा जाता है, उन्हीं के कारण सामाजिक-जीवन दूषित होता है। जैन-दर्शन इन्हीं कषायों के निरोध को अपनी नैतिकसाधना का आधार बनाता है, अतः यह कहना उचित ही होगा कि जैन-दर्शन अपने साधना-मार्ग के रूप में सामाजिक - विषमताओं को समाप्त कर, सामाजिक समत्व की स्थापना का प्रयत्न करता है। यदि हम जैन धर्म में स्वीकृत पाँच महाव्रतों को देखें, तो स्पष्ट रूप से उनका पूरा सन्दर्भ सामाजिक-जीवन है। हिंसा, मृषावचन, चोरी, मैथुन-सेवन (व्यभिचार) एवं संग्रहवृत्ति सामाजिक-जीवन की बुराइयाँ हैं / इनसे बचने