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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-733 जैन- आचार मीमांसा-265 सामाजिक-सम्बन्धों को जोड़ने वाला तत्त्व क्या होगा ? राग के अभाव से तो सारे सामाजिक-सम्बन्ध चरमरा कर टूट जाएंगे। रागात्मकता ही तो हमें एक-दूसरे से जोड़ती है, अतः राग सामाजिक-जीवन का एक आवश्यक तत्त्व है, किन्तु मेरी अपनी विनम्र धारणा में जो तत्त्व व्यक्ति को व्यक्ति से या समाज से जोड़ता है, वह राग नहीं, विवेक है। तत्त्वार्थसूत्र में इस बात की चर्चा उपस्थित की गई है कि विभिन्न द्रव्य एकदूसरे का सहयोग किस प्रकार करते हैं। उसमें जहाँ पुद्गल-द्रव्य को जीव-द्रव्य का उपकारक कहा गया है , वहीं एक जीव को दूसरे जीवों का उपकारक कहा गया है ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' / चेतन-सत्ता यदि किसी का उपकार या हित कर सकती है, तो चेतन सत्ता का ही कर सकती है। इस प्रकार, पारस्परिक हित-साधन, यह जीव का स्वभाव है और यह पारस्परिक हित-साधना की स्वाभाविक-वृत्ति ही मनुष्य की सामाजिकता का आधार है। इस स्वाभाविक-वृत्ति के विकास के दो आधार हैं - एक, रागात्मक और दूसरा, विवेक / रागात्मकता हमें कहीं से जोड़ती है, तो कहीं से तोड़ती भी है। इस प्रकार, रागात्मकता के आधार पर जब हम किसी को अपना मानते हैं, तो उसके विरोधी के प्रति ‘पर' का भाव भी आ जाता है। राग द्वेष के साथ ही जीता है। वे ऐसे जुड़वां शिशु हैं; जो एक साथ उत्पन्न होते हैं, एक साथ जीते हैं और एक साथ मरते भी हैं। राग जोड़ता है, तो द्वेष तोड़ता है। राग के आधार पर जो भी समाज खड़ा होगा, तो उसमें अनिवार्य रूप से वर्गभेद और वर्णभेद रहेगा ही। सच्ची सामाजिकचेतना का आधार राग नहीं, विवेक होगा। विवेक के आधार पर दायित्व-बोध एवं कर्तव्य-बोध की चेतना जाग्रत होगी / राग की भाषा अधिकार की भाषा है, जबकि विवेक की भाषा कर्त्तव्य की भाषा है। जहाँ केवल अधिकारों की बात होती है, वहाँ केवल विकृत सामाजिकता होती है। स्वस्थ सामाजिकता अधिकार का नहीं, कर्तव्य का बोध कराती है और ऐसी सामाजिकता का आधार 'विवेक' होता है, कर्त्तव्य-बोध होता है। जैन धर्म ऐसी ही सामाजिक-चेतना को निर्मित करना चाहता है। जब विवेक हमारी सामाजिक-चेतना का आधार बनता है, तो मेरे और तेरे की, अपने और पराए की चेतना समाप्त हो जाती है, सभी आत्मवत् होते हैं / जैन धर्म ने अहिंसा को जो अपने धर्म का आधार माना है, उसका आधार यही आत्मवत्-दृष्टि है। सामाजिक-जीवन के बाधक तत्त्व-अहंकार और कषाय .. सामाजिक-सम्बन्ध में व्यक्ति का अहंकार भी बहुत कम महत्वपूर्ण कार्य करता
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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