________________ जैन धर्म एवं दर्शन-717 जैन - आचार मीमांसा -249 के साथ ध्यान में प्रशस्त विचार का होना। 2. उत्थित-निविष्टकाय-चेष्टा का निरोध तो हो, लेकिन विचार (ध्यान) अप्रशस्त हो। 3. उपविष्ट-उत्थित - शारीरिक- चेष्टाओं का पूरी तरह निरोध नहीं हो पाता हो, लेकिन विचार-विशुद्धि हो। 4. उपविष्ट- निविष्ट-न तो विचार (ध्यान) विशुद्धि हो और न शारीरिक-चेष्टाओं का निरोध ही हो। इनमें पहला और तीसरा प्रकार ही आचरणीय है। ___ कायोत्सर्ग के दोष - कायोत्सर्गसम्यक् प्रकार से सम्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि कायोत्सर्ग के दोषों से बचा जाए। प्रवचनसारोद्धार में कायोत्सर्ग के 19 दोष वर्णित हैं - 1. घोटक-दोष, 2. लता-दोष, 3. स्तंभकुड्य-दोष, 4. माल-दोष, 5. शबरी-दोष, 6. वधू-दोष, 7. निगड-दोष, 8. लम्बोत्तर-दोष, 9.स्तन-दोष, 10. उर्द्धिका-दोष, 11. संयतीदोष, 12. खलीन-दोष, 13. वायस-दोष, 14. कपित्य-दोष, 15. शीर्षोत्कम्पित-दोष, 16. मूक-दोष, 17. अंगुलिका-भ्रूदोष, 18. वारुणी-दोष और 19. प्रज्ञा-दोष। इन दोषों का सम्बन्ध शारीरिक एवं आसृनिक-अवस्थाओं से है। इन दोषों के प्रति सावधानी रखते हुए कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग के लाभ के सन्दर्भ में शरीर शास्त्रीय दृष्टिकोण - आधुनिक शरीर-शास्त्र की दृष्टि से विचार करने पर हम देखते हैं कि कायोत्सर्ग एक प्रकार से शारीरिक-क्रियाओं की निवृत्ति है / शरीर-शास्त्र की दृष्टि से शरीर को विश्राम देना आवश्यक है, क्योंकि शारीरिक-प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप शरीर में निम्न विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं- 1. स्नायुओं में स्नायु-शर्करा कम होती है। 2. लेक्टिक-एसिड स्नायुओं में ममा होती है। 3. लेक्टिक-एसिड की वृद्धि होने पर उष्णता बढ़ती है। 4. स्नायु-तंत्र में थकान आती है। 5. रक्त में प्राणवायु की मात्रा कम होती है / कायोत्सर्ग के द्वारा शारीरिक-क्रियाओं में शिथिलता आती है और परिणामस्वरूप शारीरिकतत्त्व, जो श्रम के कारण विषम स्थिति में हो जाते हैं, वे पुनः सम स्थिति में आ जाते हैं। (1) एसिड पुनः स्नायु-शर्करा में परिवर्तन होता है। (2) लेक्टिक-एसिड का जमाव कम होता है। (3) लेक्टिक-एसिड की कमी से उष्णता में कमी होती है। (4) स्नायुतन्त्र में ताजगी आती है। (5) रक्त में प्राणवायु की मात्रा बढ़ती है। मन, मस्तिष्क और शरीर में गहरा सम्बन्ध है। उनके असमंजस से उत्पन्न अवस्था ही स्नायविक-तनाव है। मानसिक-आवेग उसके मुख्य कारण हैं / हम जब द्रव्यक्रिया करते हैं, अर्थात् शरीर को किसी दूसरे काम में लगाते हैं और मन कहीं दूसरे ओर भटकता है, तब स्नायविक-तनाव बढ़ता है। हम भाव-क्रिया करना सीख जाएं, शरीर और मन को साथ-साथ काम में संलग्न करने का अभ्यास कर लें, तो स्नायविक-तनाव बढ़ने का अवसर ही न मिले। जो लोग इस स्नायविक-तनाव के शिकार होते हैं, वे शारीरिक और मानसिकस्वास्थ्य से वंचित रहते हैं। वे लोग अधिक भाग्यशाली हैं, जो इस तनाव से मुक्त रहते हैं।