________________ जैन धर्म एवं दर्शन-716 जैन- आचार मीमांसा -248 हो जाता है कि महावीर की साधना-प्रणाली में क्यों प्रतिक्रमण-विधि पर बहुत जोर दिया गया है? इस विधि के अनुसार, साधक को प्रथम ध्यान में समग्र आचरण का परिशीलन करना होता है, तत्पश्चात् वह ग्रहण किए हुए व्रतों एवं उनमें होने वाले सम्भावित दोषों (अतिचारों) का स्मरण करता है और फिर दूसरे ध्यान में उनके आधार पर अपने आचरण का विश्लेषण कर प्रत्याख्यान के द्वारा उनसे निवृत्त हो स्वस्थान पर लौट आता है। वर्तमान परम्परा में ध्यान में जो 'लोगस्स' का पाठ किया जाता है, वह बहुत ही परवर्ती युग की घटना है। जब ध्यान में साधक का मन अत्यधिक चंचल रहने लगा होगा और वह अपने आचरण का विश्लेषण करने में सक्षम नहीं रहा होगा, तो ऐसी स्थिति में आचार्यों ने लोगस्स' का पाठ करने का निर्देश दिया होगा। 5. कायोत्सर्ग ___ कायोत्सर्ग शब्द का शाब्दिक अर्थ है -शरीर का उत्सर्ग करना, लेकिन जीवित रहते हुए शरीर का त्याग सम्भव नहीं। यहाँ शरीर त्याग का अर्थ है-शारीरिक-चंचलता एवं देहासक्ति का त्याग। किसी सीमित समय के लिए शरीर के ऊपर रहे हुए ममत्व का परित्याग कर शारीरिकक्रियाओं की चंचलता को समाप्त करने का जो प्रयास किया जाता है, वह कायोत्सर्ग है। जैनसाधना में कायोत्सर्ग का महत्व बहुत अधिक है। प्रत्येक अनुष्ठान के पूर्व कायोत्सर्ग की परम्परा है। वस्तुतः, देहाध्यास को समाप्त करने के लिए कायोत्सर्ग आवश्यक है। कायोत्सर्गशरीर के प्रति ममत्व-भाव को कम करता है। प्रतिदिन जो कायोत्सर्ग किया जाता है, वह चेष्टा-कायोत्सर्ग है, अर्थात् उसमें एक निश्चित समय के लिए समग्र शारीरिक-चेष्टाओं का निरोध किया जाता है एवं उस समय में शरीर पर होने वाले उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन किया जाता है। आचार्य भद्रबाहु आवश्यकनियुक्ति में शुद्ध कायोत्सर्ग के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि चाहे कोई भक्ति-भाव से चन्दन लगाए, चाहे कोई द्वेषवश बसूले से छीले, चाहे जीवन रहे, चाहे उसी क्षण मृत्यु आ जाए, परन्तु जो साधक देह में आसक्ति नहीं रखता है, उक्त सब स्थितियों में समभाव रखता है, वस्तुतः, उसी का कायोत्सर्गशुद्ध होता है। देहव्युत्सर्ग के बिना देहाध्यास का छूटना संभव नहीं, जब तक देहाध्यास या देह-भाव नहीं छूटता, तब तक मुक्ति भी सम्भव नहीं। इस प्रकार, मुक्ति के लिए देहाध्यास का छूटना आवश्यक है और देहाध्यास छोड़ने के लिए कायोत्सर्ग भी आवश्यक है। कायोत्सर्ग की मुद्रा- कायोत्सर्ग तीन मुद्राओं में किया जा सकता है - 1. जिनमुद्रा में खड़े होकर, 2. पद्मासन या सुखासन से बैठकर और 3. लेटकर। कायोत्सर्ग की अवस्था में शरीर को शिथिल करने का प्रयास करना चाहिए। कायोत्सर्ग के प्रकार-जैन-परम्परा में कायोत्सर्ग के दो प्रकार हैं - 1. द्रव्य और 2. भाव। द्रव्य-कायोत्सर्ग शारीरिक चेष्टा-निरोध है और भाव-कायोत्सर्गध्यान है। इस आधार पर जैन आचार्यों ने कायोत्सर्ग की एक चौभंगी दी है। 1. उत्थित-उत्थित - काय-चेष्टा के निरोध