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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-486 जैन- आचार मीमांसा-18 द्रव्यार्थिक-नय की दृष्टि से समता का अर्थ परभाव से हटकर शुद्ध स्वभाव-दशा में स्थित हो जाना है, किन्तु अपनी विविध अभिव्यक्तियों की दृष्टि से भिन्न स्थितियों में इसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। आध्यात्मिकदृष्टि में समता या समभाव का अर्थ राग-द्वेष से ऊपर उठकर वीतरागता या अनासक्त भाव की उपलब्धि है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक-समत्व का अर्थ है- समस्त इच्छाओं, आकांक्षाओं से रहित मन की शान्त और विक्षोभ (तनाव) रहित अवस्था। यही समत्व जब हमारे सामुदायिक या सामाजिक-जीवन में फलित होता है, तो इसे हम अहिंसा के नाम से अभिहित करते हैं। वैचारिकदृष्टि से इसे हम अनाग्रह या अनेकान्तदृष्टि कहते हैं। जब हम इसी समत्व के आर्थिकपक्ष पर विचार करते हैं, तो इसे परिग्रह के नाम से जानते हैं। साम्यवाद एवं न्यासीसिद्धान्त इसी अपरिग्रहवृत्ति की आधुनिक अभिव्यक्तियाँ हैं। यह समत्व ही मानसिक-क्षेत्र में अनासक्ति या वीतरागता के रूप में, सामाजिक क्षेत्र में अहिंसा के रूप में, वैचारिकता के क्षेत्र में अनाग्रह या अनेकान्त के रूप में और आर्थिक क्षेत्र में अपरिग्रह के रूप में अभिव्यक्त होता है, अतः 'समत्व' को निर्विवाद रूप में और आर्थिकक्षेत्र में अपरिग्रह के रूप में अभिव्यक्त होता है, अतः 'समत्व' को निर्विवाद रूप से सदाचार का मानदण्ड स्वीकार किया जा सकता है। ‘समत्व' को सदाचार का मानदण्ड स्वीकार करते हुए भी हमें उसके विविध पहलुओं पर विचार तो करना ही होगा, क्योंकि सदाचार का सम्बन्ध अपने साध्यं के साथ-साथ उन साधनों से भी होता है, जिनके द्वारा हम उसे पाना चाहते हैं और जिस रूप में वह हमारे व्यवहार में और सामुदायिक जीवन में प्रकट होता है। ___ जहाँ तक व्यक्ति के चैत्तसिक या आन्तरिक-समत्व का प्रश्न है, हम उसे वीतराग मनोदशा या अनासक्त चित्तवृत्ति की साधना मान सकते हैं। फिर भी समत्व की साधना का यह रूप हमारे वैयक्तिक एवं आन्तरिक-जीवन से अधिक सम्बन्धित है, यह व्यक्ति की मनोदशा का परिचायक है। यह ठीक है कि व्यक्ति की मनोदशा का प्रभाव उसके आचरण के आन्तरिक पक्ष पर विचार भी करते हैं, किन्तु सदाचार या दुराचार का प्रश्न हमारे व्यवहार के बाह्य एवं सामुदायिक पक्षों के साथ अधिक जुड़ा हुआ है। जब
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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