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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-485 जैन- आचार मीमांसा-17 जैन-दर्शन अपने चरम साध्य के बारे में स्पष्ट है। उसके अनुसार, व्यक्ति का चरम साध्य मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति हैं वह यह मानता है कि जो आचरण निर्वाण या मोक्ष की दिशा में ले जाता है, वही सदाचार की कोटि में आता है। दूसरे शब्दों में, जो आचरण मुक्ति का कारण है, वह सदाचार है और जो आचरण बन्धन का कारण है, वह दुराचार है, किन्तु यहाँ पर हमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि उसका मोक्ष अथवा निर्वाण से क्या तात्पर्य है। जैनधर्म के अनुसार निर्वाण या मोक्ष स्वभावदशा एवं आत्मपूर्णता की प्राप्ति है। वस्तुतः, हमारा जो निजस्वरूप है, उसे प्राप्त कर लेना, अथवा हमारी बीजरूप क्षमताओं को विकसित कर आत्मपूर्णता की प्राप्ति ही मोक्ष है। उसकी पारम्परिक शब्दावली में विभाव से हटकर स्वभाव में स्थित हो जाना ही मोक्ष हैं। यही कारण था कि जैनदार्शनिकों ने धर्म की एक विलक्षण एवं महत्वपूर्ण परिभाषा दी है। उनके अनुसार, धर्म वह है, जो वस्तु का निजस्वभाव है (वत्थुसहावो धम्मो) / व्यक्ति का धर्म या साध्य वही हो सकता है, जो उसकी चेतना या आत्मा का निज स्वभाव है और जो हमारा निजस्वभाव है, उसी को पा लेना ही मक्ति है, अतः उस स्वभावदशा की ओर ले जाने वाला आचरण ही सदाचरण है। - पुनः, प्रश्न यह उठता है कि हमारा स्वभाव क्या है? भगवतीसूत्र में गौतम ने भगवान् महावीर के सम्मुख यह प्रश्न उपस्थित किया था। वे पूछते हैं, 'भगवन्, आत्मा का निजस्वरूप क्या है और आत्मा का साध्य क्या है?' महावीर ने उनके प्रश्नों का जो उत्तर दिया था, वही आज भी समस्त '. जैनआचारदर्शन में किसी धर्म के नैतिक मूल्यांकन का आधार है। महावीर ने कहा था, 'आत्मा समत्वस्वरूप है और उस समत्वस्वरूप को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है। दूसरे शब्दों में, समता या समभाव स्वभाव है और विषमता विभाव है और जो विभाव से स्वभाव की दिशा में, अथवा विषमता से समता की दिशा में ले जाता है, वही धर्म है, नैतिकता है, सदाचार है, अर्थात् विषमता से समता की ओर ले जाने वाला आचरण ही सदाचार है वहीं विभाव से फलित होने वाला आचरण दुराचार है। समता . सदाचार है और विषमता दुराचार है। यहाँ हमें समता के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा। यद्यपि
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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