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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-701 जैन- आचार मीमांसा-233 अधिकाधिक जनसंपर्क और जन-कल्याण भी संभव होता है। (10) पर्वृषण-कल्प - पर्दूषण-काल में एक स्थान पर रहकर तप, संयम और ज्ञान की आराधना करना पYषण-कल्प है। चार्तुमास-काल में स्थित मुनि को इसके लिए विशेष प्रयत्न करना चाहिए। जैन-परम्परा में भिक्षु-जीवन के सामान्य नियम जैन-परम्परा में भिक्षु-जीवन के नियमों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है। उनमें कुछ नियम ऐसे हैं, जिनका भंग करने पर भिक्षु श्रमण-जीवन से च्युत हो जाता है। ऐसे नियमों में इक्कीस शबल-दोष तथा बावन अनाचीर्ण प्रमुख हैं। इसके अतीरिक्त, कुछ सामान्य नियम ऐसे हैं, जिनका भंग करने से यद्यपि भिक्षु श्रमण-जीवन से च्युत तो नहीं होता, फिर भी उसके सामान्य जीवन की पवित्रता मलिन होती है। नीचे हम इन विभिन्न नियमों की चर्चा करेंगे। ___ शबल-दोष - शबल-दोष जैन-भिक्षु के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। आचार्य अभयदेव के अनुसार, जिन कार्यो के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है तथा चारित्र मलक्लिन्न होने के कारण छिन्न-भिन्न हो जाता है, वे कार्य शबल-दोष हैं। जैन-परम्परा में शबल-दोष इक्कीस हैं, जैसे - 1. हस्तमैथुन करना, 2. स्त्री-स्पर्श एवं मैथुन का सेवन करना, 3. रात्रि में भोजन करना एवं भिक्षा ग्रहण करना, 4. मुनि के निमित्त बनाया गया भोजन आदि लेना (आधाकर्म), 5. शय्यातर, अर्थात निवासस्थान देने वाले के गृहस्वामी का आहार ग्रहण करना, 6. भिक्षु या याचकों के निमित्त बनाया गया (औद्देशिक), खरीदा गया (क्रीत), उनके स्थान पर लाकर दिया गया (आहृत), उनके लिए मांगकर लाया गया (प्रामित्य) एवं किसी से छीनकर लाया गया आहार आदि पदार्थ ग्रहण करना, 7. प्रतिज्ञाओं का बार-बार भंग करना, 8. छह मास में एक गण से दूसरे गण में चले जाना, अर्थात जल्दी-जल्दी बिना किसी विशेष कारण के गणपरिवर्तन करना, 9. एक मास में तीन बार नाभि या जंघा-प्रमाण जल में प्रवेश कर नदी आदि पार करना (उदकलेप), 10. एक मास में तीन बार से अधिक कपट करना अथवा कृत अपराध को छुपा लेना, 11. राजपिण्ड ग्रहण करना, 12. जानबूझकर असत्य बोलना, 13. जानबूझकर जीव-हिंसा करना, 14.
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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