________________ जैन धर्म एवं दर्शन-695 जैन- आचार मीमांसा-227 मनुष्यों का आवागमन होता हो, गाँव के अति निकट हो, ऐसे स्थानों पर मल-मूत्र आदि का विसर्जन नहीं करना चाहिए। मुनि को मल-मूत्र आदि अशुचिं का विसर्जन करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वह इस प्रकार डाला जाए कि जिससे शीघ्र ही सूख जाए और उसमें कृमि की उत्पत्ति की संभावना न रहे। सामान्यतया, इस हेतु कंकरीली, कठोर, अचित्त और खुली हुई धूपयुक्त भूमि को चुनना चाहिए। उसे ऐसे स्थानों पर भी मल-मूत्र आदि का विसर्जन नहीं करना चाहिए कि उसके मल-मूत्र आदि को दूसरे मनुष्यों को उठाना पड़े। इस प्रकार, उसे मल-मूत्र आदि के विसर्जन में काफी सावधानी और विवेक रखना चाहिए। इन्द्रियसंयम __ जैन आचार-दर्शन में इन्द्रियसंयम श्रमण-जीवन का अनिवार्य कर्तव्य माना गया है। यदि मुनि इन्द्रियों पर संयम नहीं रखेगा, तो वह नैतिक-जीवन में प्रगति नहीं कर सकेगा, क्योंकि आधिकांश पतित आचरणों का अवलम्बन व्यक्ति अपने इन्द्रिय-सुखों की प्राप्ति के लिए ही करता है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसका सविस्तार विवेचन है कि किस प्रकार व्यक्ति इन्द्रिय-सुखों के पीछे अपने आचरण से पतित हो जाता है। इन्द्रिय-संयम का यह अर्थ नहीं है कि इन्द्रियों को अपने विषयों के ग्रहण करने से रोक दिया जाए, वरन् यह है कि हमारे मन में इन्द्रियों के विषयों के प्रति जो रागद्वेष के भाव उत्पन्न होते हैं, उनका नियमन किया जाए। उत्तराध्ययनसूत्र एवं आचारांगसूत्र में इसका पर्याप्त स्पष्टीकरण किया गया है। संक्षेप में, श्रमण (मुनि) का यह कर्त्तव्य माना गया है कि वह अपनी पांचो इन्द्रियों पर संयम रखे और जहाँ भी संयम मार्ग से पतन की संभावना हो, वहाँ इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति का संयम करे। जिस प्रकार कछुआ संकट की स्थिति में अपने अंगों का समाहरण कर लेता है, उसी प्रकार मुनि भी संयम के पतन के स्थानों में इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति का समाहरण करे। जो मुनि जल में कमल के समान इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति को करते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता, वह संसार के दुःखों से मुक्त हो जाता है।