________________ जैन धर्म एवं दर्शन-694 जैन- आचार मीमांसा -226 नगर अथवा गाँव में प्रवेश करे। इस प्रकार, भिक्षा का काल मध्याह 12 से 3 बजे तक माना गया है। शेष समय भिक्षा के लिए विकाल माना गया है। भिक्षा की गमनविधि - मुनि ईर्यासमिति का पालन करते हुए व्याकुलता, लोलुपता एवं उद्वेग से रहित होकर वनस्पति, जीव, प्राणी आदि से बचते हुए मन्द-मन्द गति से विवेकपूर्वक भिक्षा के लिए गमन करे। सामान्यतया, मुनि अपने लिए बनाया गया, खरीदा गया, संशोधित एवं संस्कारित कोई भी पदार्थ अथवा भोजन ग्रहण नहीं करे। 4. आदान-भण्ड निक्षेपण-समिति- मुनि के काम में आने वाली वस्तुओं को सावधानीपूर्वक उठाना या रखना, जिससे किसी भी प्राणी की हिंसा न हो, आदान-निक्षेपण-समिति है। मुनि को वस्तुओं के उठाने-रखने आदि में काफी सजग रहना चाहिए। मुनि सर्वप्रथम वस्तु को अच्छी तरह देखे, फिर उसे प्रमार्जित करे और उसके पश्चात् उसे उपयोग में ले। 5. मलमूत्रादिप्रतिस्थापना-समिति - आहार के साथ निहार लगा ही हुआ है। मुनि को शारीरिक-मलों को इस प्रकार और ऐसे स्थानों पर डालना चाहिए, जिससे न व्रत भंग हो और न लोग ही घृणा करें। मुनि के लिए परिहार्य वस्तुएँ निम्न हैं - मल, मूत्र, कफ, नाक एवं शरीर का मैल, अपथ्य आहार, अनावश्यक पानी, अनुपयोगी वस्त्र एवं मुनि का मृत शरीर / भिक्षुक इन सब परिहार्य वस्तुओं का विवेकपूर्वक उचित स्थानों पर ही डाले। परिहार के हेतु निषिद्ध स्थान - परिहार के हेतु निषिद्ध स्थान दो दृष्टियों से माने गए हैं - (1) व्रतभंग की दृष्टि से और (2) लोकापवाद की दृष्टि से। व्रतभंग की दृष्टि से मुनि नाली, पाखाने, जीवजन्तुयुक्त प्रदेश, हरी घास, कंदमूलादि वनस्पति से युक्त प्रदेश, खदान और नई फोड़ी हुई भूमि पर मल-मूत्र आदि का विसर्जन न करे, क्योंकि ऐसे स्थानों पर मल-मूत्र आदि का विसर्जन करने से जीव-हिंसा होती है और साधु का अहिंसा-महाव्रत भंग होता है। लोकापवाद की दृष्टि से भोजन पकाने का स्थान, गाय-बैल आदि पशुओं के स्थान, देवालय, नदी के कनारे, तालाब, स्तूप, श्मशान, सभागृह, उद्यान, उपवन, प्याऊ, किला, नगर के दरवाजे, नगर के मार्ग तथा वह स्थान जहाँ तीन-चार रास्ते मिलते हों,