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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-668 __ जैन- आचार मीमांसा-200 कर सकती। दर्शनप्रतिमा में साधक इन कषायों की तीव्रता को कम कर सम्यग्दर्शन अर्थात यथार्थ दृष्टिकोण प्राप्त करता है। 2. व्रत-प्रतिमा :- दृष्टिकोण की विशुद्धि के साथ जब साधक सम्यक् आचरण के क्षेत्र में चारित्रविशुद्धि के लिए आगे आता है तो वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का अपनी गृहस्थ मर्यादाओं के अनुरूप आंशिक रूप से पालन करना प्रारम्भ करता है। वह गृहस्थ जीवन के 5 अणुव्रतों और 3 गुणव्रतों का निर्दोषरूप से पालन करना प्रारम्भ करता है। ... 3. सामायिक-प्रतिमा :- साधना का अर्थ मात्र त्याग ही नहीं वरन् कुछ प्राप्ति भी हैं। सामायिक-प्रतिमा में साधक 'समत्व' प्राप्त करता है। 'समत्व' के लिए किया जाने वाला प्रयास सामायिक कहलाता है / यद्यपि समत्व एक दृष्टि है, एक विचार है लेकिन वह ऐसा विचार नहीं जो आचरण में प्रकट न होता हो। उसे जीवन के आचरणात्मक पक्ष में उतारने के लिए सतत् प्रयास अनिवार्य है। 4. प्रोषधोपवास-प्रतिमा :- साधना की इस कक्षा में गृहस्थ उपासक गृहस्थी के झंझटों में से कुछ ऐसे अवकाश के दिन निकालता है, जब वह गृहस्थी के उत्तरादायित्वों से मुक्त होकर मात्र आध्यात्मिक चिन्तन-मनन कर सके। वह गुरु के समीप या धर्मस्थान (उपासनागृह) में रहकर आध्यात्मिक साधना में ही उस दिवस को व्यतीत करता है। प्रत्येक मास की दो अष्टमी, दो चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा इन दिनों में गृहस्थी के समस्त क्रियाकलापों से अवकाश पाकर उपवाससहित धर्मस्थान या उपासना-गृह में निवास करते हुए आत्मसाधना में रत रहना गृहस्थ की प्रोषधोपवास प्रतिमा है। 5. नियम-प्रतिमा :- इसे कायोत्सर्ग प्रतिमा एवं दिवामैथुनविरत प्रतिमा भी कहा जाता है। इसमें पूर्वोक्त प्रतिमाओं का निर्दोष पालन करते हुए पाँच विशेष नियम लिये जाते हैं - (1) स्नान नहीं करना, (2) रात्रि-भोजन नहीं करना, (3) धोती की एक लांग नहीं लगाना, (4) दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना तथा रात्रि में मैथुन की मर्यादा निश्चित करना, (5) अष्टमी, चतुर्दशी आदि किसी पर्व दिन में रात्रिपर्यन्त देहासक्ति त्याग कर कायोत्सर्ग करना वस्तुत: इस प्रतिमा में कामासक्ति, भोगासक्ति अथवा देहासक्ति कम करने का प्रयास किया जाता है। 6. ब्रह्मचर्य-प्रतिमा :- जब गृहस्थ साधक नियम-प्रतिमा की साधना के द्वारा कामासक्ति पर विजय पाने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है तो वह विकास की इस
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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