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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-667 जैन - आचार मीमांसा -199 बाधा न पहुँचे / इसके बाद मध्याह्नकालीन साधना करे और फिर भोजन करके शास्त्रवेत्ताओं के साथ शास्त्र के अर्थ का विचार करे / पुन: संध्या समय देव, गुरु की उपासना एवं प्रतिक्रमण आदि षट् आवश्यक क्रिया करे, फिर स्वाध्याय करके अल्प निद्रा ले। (योगशास्त्र 3/121-131) गृहस्थ के विकास की भूमिकाएँ . जैनदर्शन निवृत्ति-परक है, लेकिन गृही-जीवन से समग्र रूप में तत्काल निवृत्त हो जाना जन-साधारण के लिए सुलभ नहीं होता। अत: निवृत्ति की दिशा में विभिन्न स्तरों का निर्माण आवश्यक है, जिससे व्यक्ति क्रमश: अपना नैतिक विकास करता हुआ साधना के अंन्तिम आदर्श को प्राप्त कर सके / जैन-विचारणा में गृही-जीवन में साधना का विकास क्रम कैसे आगे बढ़ता है, इसका सुन्दर चित्रण हमें "श्रावकप्रतिमा" की धारणा में मिलता है। श्रावक प्रतिमाएँ गृही-जीवन में की जानेवाली साधना की विकासोन्मुख श्रेणियाँ (भूमिकाएँ) हैं, जिन पर क्रमश: चढ़ता हुआ साधक अपनी आध्यात्मिक प्रगति कर जीवन के परमादर्श “स्वस्वरूप” को प्राप्त कर लेता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों विचारणाओं में श्रावक प्रतिमाएँ (भूमिकाएँ) ग्यारह हैं। श्वेताम्बर सम्मत उपासक भूमिकाओं के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं - (1) दर्शन, (2) व्रत, (3) सामायिक, (4) प्रोषध, (5) नियम, (6) ब्रह्मचर्य, (7) सचित्तत्याग, (8) आरम्भत्याग, (9) प्रेष्यपरित्याग, (10) उद्दिष्टभक्त त्याग और (11) श्रमणभूता दिगम्बर सम्मत क्रम एवं नाम इस प्रकार हैं - (1) दर्शन, (2) व्रत, (3) सामायिक, (4) प्रौषध, (5) सचित्तत्याग, (6) रात्रिभोजन एवं दिवामैथुन विरति, (7) ब्रह्मचर्य, (8) आरम्भत्याग, (9) परिग्रहत्याग, (10) अनुमति त्याग और (11) उद्दिष्ट-त्याग। ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप - 1. दर्शन-प्रतिमा :- साधक की अध्यात्म-मार्ग की यथार्थता के सम्बन्ध में दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा होना ही दर्शनप्रतिमा है। विशुद्धि की प्रथम शर्त है क्रोध, मान, माया और लोभ, इस कषाय-चतुष्क की तीव्रता में मन्दता / जब तक इन कषायों का अनन्तानुबन्धी रूप समाप्त नहीं होता, दर्शनविशुद्धि नहीं होती। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में मानवीय विवेक को अपहरित कर लेने वाले क्रोधादि संवेगों के तीव्र आवेग ही प्रज्ञा-शक्ति को कुण्ठित कर देते हैं। अत: जब तक इन संवेगों या तीव्र आवेगों पर विजय प्राप्त नहीं की जाती, हमारी विवेकशक्ति या प्रज्ञा सम्यक् रूप से अपना कार्य नहीं
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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