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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-637 जैन - आचार मीमांसा -169 स्वतन्त्र रूप में मोक्षमार्ग समझे जाते रहे हैं। सम्भवतः, गीता एक ऐसी रचना अवश्य है, जो इन सभी साधना-विधियों को स्वीकार करती है। यद्यपि गीताकार ने इन विभिन्न धाराओं को समेटने का प्रयत्न तो किया, लेकिन वह उनको समन्वित नहीं कर पाया, यही कारण था कि परवर्ती टीकाकारों ने अपने पूर्व-संस्कारों के कारण गीता को इनमें से किसी एक साधना-मार्ग का प्रतिपादक बताने का प्रयास किया और गीता में निर्देशित साधना के दूसरे मार्गों को गौण बताया। शंकर ने ज्ञान को, रामानुज ने भक्ति को, तिलक ने कर्म को गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय माना। लेकिन, जैन-विचारकों ने इस त्रिविध साधना-पथ को समवेत रूप में ही मोक्ष का कारण माना और यह बताया कि ये तीनों एक-दूसरे से अलग होकर नहीं, वरन् समवेत रूप में ही मोक्ष को प्राप्त करा सकते हैं। उसने तीनों को समान माना और उनमें से किसी को भी एक के अधीन बनाने का प्रयास नहीं किया। हमें इस भ्रांति से बचना होगा कि श्रद्धा, ज्ञान और आचरण-ये स्वतन्त्र रूप में नैतिक-पूर्णता के मार्ग हो सकते हैं। मानवीय-व्यक्तित्व और नैतिक-साध्य एक पूर्णता है और उसे समवेत रूप में ही पाया जा सकता है। बौद्ध-परम्परा और जैन-परम्परा-दोनों ही एकांगी दृष्टिकोण नहीं रखते हैं। बौद्ध परम्परा में भी शील, समाधि और प्रज्ञा अथवा प्रज्ञा, श्रद्धा और वीर्य को समवेत रूप में ही निर्वाण का कारण माना गया है। इस प्रकार, बौद्ध और जैन-परम्पराएँ न केवल अपने साधना-मार्ग के प्रतिपादन में , वरन् साधन-त्रय के बलाबल के विषय में भी समान दृष्टिकोण रखती हैं। वस्तुतः, नैतिक-साध्य का स्वरूप और मानवीय प्रकृति-दोनों ही यह बताते हैं कि त्रिविध साधना-मार्ग अपने समवेत रूप में ही नैतिक-पूर्णता की प्राप्ति करा सकता है। यहाँ इस त्रिविध साधना-पथ का मानवीय-प्रकृति और नैतिक-साध्य से क्या सम्बन्ध है, इसे स्पष्ट कर लेना उपयुक्त होगा। मानवीय-प्रकृति और त्रिविध साधना-पथ - मानवीय-चेतना के तीन कार्य हैं- 1. जानना 2. अनुभव करना और 3. संकल्प करना / हमारी चेतना का ज्ञानात्मक-पक्ष न केवल जानना चाहता है, वरन् वह सत्य को ही जानना चाहता है। ज्ञानात्मक-चेतना निरन्तर सत्य की खोज में रहती है, अतः जिस विधि से हमारी ज्ञानात्मक-चेतना सत्य को उपलब्ध कर सके, उसे ही सम्यक्-ज्ञान कहा गया है। सम्यक्-ज्ञान चेतना के ज्ञानात्मक-पक्ष को सत्य की उपलब्धि की दिशा में ले जाता
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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