SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-636 जैन- आचार मीमांसा-168 में सहायक नहीं हैं। उसने सम्यग्दृष्टि और सम्यक्स्मृति के साथ ही सम्यक् वाचा, सम्यक्-आजीव और सम्यक्-कर्मान्त को स्वीकार कर इसी तथ्य की पुष्टि की है कि प्रज्ञा और शील के समन्वय में ही मुक्ति है / बुद्ध ने क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया-दोनों को अपूर्ण माना है। जातक में कहा गया है कि आचरणरहित श्रुत से कोई अर्थ सिद्ध नहीं होता। दूसरी ओर, बुद्ध की दृष्टि में नैतिक-आचरण अथवा कर्म चित्त की एकाग्रता के लिए हैं। वे एक साधन हैं और इसलिए परमसाध्य नहीं हो सकते। मात्र शीलव्रत-परामर्श अथवा ज्ञानशून्य क्रियाएँ बौद्ध-साधना का लक्ष्य नहीं हैं, प्रज्ञा की प्राप्ति ही एक ऐसा तथ्य है, जिससे नैतिक-आचरण बनता है। डॉ. टी.आर.व्ही. मूर्ति ने शान्तिदेव की बोधिचर्यावतार की पंजिका एवं अष्टसहस्रिका से भी इस कथन की पुष्टि के लिए प्रमाण उपस्थित किए हैं। बौद्ध-विचारणा में शील और प्रज्ञा-दोनों का समान रूप से महत्व स्वीकार किया गया है। सुत्तपिटक के ग्रन्थ थेरगाथा में कहा गया है- संसार में शील ही श्रेष्ठ है, प्रज्ञा ही उत्तम है। मनुष्यों और देवों में शील और प्रज्ञा से ही वास्तविक विजय होती है।52 भगवान् बुद्ध ने शील और प्रज्ञा में एक सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है। दीघनिकाय में कहा है कि शील से प्रज्ञा प्रक्षालित होती है और प्रज्ञा (ज्ञान) से शील (चारित्र) प्रक्षालित होता है। जहाँ शील है, वहाँ प्रज्ञा है और जहाँ प्रज्ञा है, वहाँ शील है। इस प्रकार, बुद्ध की दृष्टि में शीलविहीन प्रज्ञा और प्रज्ञाविहीन शील-दोनों ही असम्यक् हैं / जो ज्ञान और आचरण-दोनों से समन्वित है, वही सब देवताओं और मनुष्यों में श्रेष्ठ है। 54 आचरण के द्वारा ही प्रज्ञा की शोभा बढ़ती है। इस प्रकार, बुद्ध भी प्रज्ञा और शील के समन्वय में निर्वाण की उपलब्धि संभव मानते हैं, फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रारम्भिक बौद्धदर्शन शील पर और परवर्ती बौद्धदर्शन प्रज्ञा पर अधिक बल देता रहा है। तुलनात्मक-दृष्टि से विचार- जैन-परम्परा में साधन-त्रय के समवेत में ही मोक्ष की निष्पत्ति मानी गई है। वैदिक-परम्परा में ज्ञान-निष्ठा, कर्मनिष्ठा और भक्तिमार्गये तीनों ही अलग-अलग मोक्ष के साधन माने जाते रहे हैं और इन आधारों पर वैदिकपरम्परा में स्वतन्त्र सम्प्रदायों का उदय भी हुआ है। वैदिक-परम्परा में प्रारम्भ से ही कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग की धाराएँ अलग-अलग रूप में प्रवाहित होती रही हैं। भागवत-सम्प्रदाय के उदय के साथ भक्तिमार्ग एक नई निष्ठा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। इस प्रकार, वेदों का कर्ममार्ग, उपनिषदों का ज्ञानमार्ग और भागवत-सम्प्रदाय का भक्तिमार्ग तथा इनके साथ-साथ ही योगसम्प्रदाय का ध्यान-मार्ग, सभी एक-दूसरे से
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy