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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-630 . जैन- आचार मीमांसा-162 है, जब ज्ञान साधना-पथ का बोध है और दर्शन यह विश्वास जाग्रत करता है कि यह पथ उसे अपने लक्ष्य की ओर ले जाने वाला है। सामान्य पथिक भी यदि पथ के ज्ञान एवं इस दृढ़ विश्वास के अभाव में कि वह पथ उसके वांछित लक्ष्य को जाता है, अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता, तो फिर आध्यात्मिक साधना-मार्ग का पथिक बिना ज्ञान और आस्था (श्रद्धा) के कैसे आगे बढ़ सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि ज्ञान से (यथार्थ साधना-मार्ग को) जाने, दर्शन के द्वारा उस पर विश्वास करे और चारित्र से उस साधना-मार्ग पर, आचरण करता हुआ तपसे अपनी आत्मा का परिशोधन करें। यद्यपि लक्ष्य के पाने के लिए चारित्ररूप प्रयास आवश्यक है, लेकिन प्रयास को लक्ष्योन्मुख और सम्यक् होना चाहिए। मात्र अन्धे प्रयासो से लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। 'यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ नहीं है, तो ज्ञान यथार्थ नहीं होगा और ज्ञान के यथार्थ नहीं होने पर चरित्र या आचरण भी यथार्थ नहीं होगा, इसलिए जैन-आगमों में चारित्र से दर्शन (श्रद्धा) की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यक्चारित्र नहीं होता। 25 भक्तपरिज्ञा में कहा गया है कि दर्शन से भ्रष्ट (पतित) ही वास्तविक भ्रष्ट है, चारित्र से भ्रष्ट भ्रष्ट नहीं है, क्योंकि जो दर्शन से युक्त है, वह संसार में अधिक परिभ्रमण नहीं करता, जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होता। कदाचित् चारित्र से रहित सिद्ध भी हो जाए, लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नहीं होता। वस्तुतः, दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्त्व है, जो व्यक्ति के ज्ञान और आचरण का सही दिशा-निर्देश करता है। आचार्य भद्रबाहु आचारांगनियुक्ति में कहते हैं कि सम्यक्दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सफल होते हैं।" संत आनन्दघन दर्शन की महत्ता को सिद्ध करते हुए अनन्तजिन के स्तवन में कहते हैं - शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी, ___ छार (राख) पर लीपणु तेह जाणोरे। बौद्ध-दर्शन और गीता का दृष्टिकोण-जैन-दर्शन के समान बौद्ध-दर्शन और गीता में भी श्रद्धा को आचरण का पूर्ववर्ती माना गया है। संयुत्तनिकाय में बुद्ध कहते हैं कि श्रद्धापूर्वक दिया हुआ दान ही प्रशंसनीय है / आचार्य भद्रबाहु और आनन्दघन तथा भगवान् बुद्ध के उपर्युक्त दृष्टिकोण के समान ही गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है, वह सभी असत् (असम्यक्) कहा जाता है, वह न तो इस लोक में लाभदायक है, न परलोक में। तैत्तिरीय-उपनिषद् में भी यही कहा गया
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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