________________ जैन धर्म एवं दर्शन-626 जैन- आचार मीमांसा-158 यद्यपि नैतिक-साधना के लिए सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र या शील, समाधि और प्रज्ञा, अथवा श्रद्धा, ज्ञान और कर्म-तीनों आवश्यक हैं, लेकिन इनमें साधना की दृष्टि से एक पूर्वापरता का क्रम भी है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का पूर्वापर सम्बन्ध - ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर जैन-विचारणा में काफी विवाद रहा है। कुछ आचार्य दर्शन को प्राथमिक मानते हैं, तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनों का योगपद्य (समानान्तरता) स्वीकार किया है, यद्यपि आचार-मीमांसा की दृष्टि से दर्शन की प्राथमिकता ही प्रबल रही है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। इस प्रकार, ज्ञान की अपेक्षा दर्शन को प्राथमिकता दी गई है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने भी अपने ग्रन्थ में दर्शन को ज्ञान और चारित्र के पहले स्थान दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड में कहते हैं कि धर्म (साधनामार्ग) दर्शन-प्रधान है।' लेकिन, दूसरी ओर कुछ सन्दर्भ ऐसे भी है, जिनमें ज्ञान को प्रथम माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में, उसी अध्याय में मोक्ष-मार्ग की विवेचना में जो क्रम है, उसमें ज्ञान का स्थान प्रथम है। वस्तुतः, साधनात्मक-जीवन की दृष्टि से भी ज्ञान और दर्शन में किसे प्राथमिक माना जाए, यह निर्णय करना सहज नहीं है। इस विवाद के मूल में यह तथ्य है कि श्रद्धावादी-दृष्टिकोण सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान देता है, जबकि ज्ञानवादीदृष्टिकोण श्रद्धा के सम्यक् होने के लिए ज्ञान की प्राथमिकता को स्वीकार करता है। वस्तुतः, इस विवाद में कोई एकान्तिक निर्णय लेना अनुचित ही होगा / यहाँ समन्वयवादी-दृष्टिकोण ही संगत होगा। नवतत्त्वप्रकरण में ऐसा ही समन्वयवादीदृष्टिकोण अपनाया गया है, जहाँ दोनों को एक-दूसरे का पूर्वापर बताया है। कहा है कि जो जीवादि नव पदार्थों को यथार्थ रूप से जानता है, उसे सम्यक्त्व होता है। इस प्रकार, ज्ञान को दर्शन के पूर्व बताया गया है, लेकिन अगली पंक्ति में ही ज्ञानाभाव में केवल श्रद्धा से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति मान ली गई है और कहा गया है कि जो वस्तुतत्त्व को स्वतः नहीं जानता हुआ भी उसके प्रति भाव से श्रद्धा करता है, उसे सम्यक्त्व हो जाता है। 1 हम अपने दृष्टिकोण से इनमें से किसे प्रथम स्थान दें, इसका निर्णय करने के पूर्व दर्शन शब्द के अर्थ का निश्चय कर लेना जरूरी है। दर्शन शब्द के दो अर्थ हैं - 1. यथार्थ दृष्टिकोण और 2. श्रद्धा। यदि हम दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ लेते हैं, तो हमें साधना-मार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना चाहिए, क्योंकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही मिथ्या है, अयथार्थ है, तो न तो उसका ज्ञान सम्यक् ( यथार्थ) होगा और