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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-617 __ जैन- आचार मीमांसा-149 6.. नाम-कर्म जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न रंगों से अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नाम-कर्म विभिन्न कर्म-परमाणुओं से जगत् के प्राणियों के शरीर की रचना करता है। मनोविज्ञान की भाषा में नाम-कर्म को व्यक्तित्त्व का निर्धारिक तत्त्व कह सकते हैं। जैन-दर्शन में व्यक्तित्त्व के निर्धारक तत्त्वों को नामकर्म की प्रकृति के रूप में जाना जाता है, जिनकी संख्या 103 मानी गई है, लेकिन विस्तारभय से उनका वर्णन सम्भव नहीं है। उपर्युक्त सारे वर्गीकरण का संक्षिप्त रूप है- 1. शुभनामकर्म (अच्छा व्यक्तित्त्व) और 2. अशुभनामकर्म (बुरा व्यक्तित्त्व)। प्राणी जगत् में जो आश्चर्यजनक वैचित्र्य दिखाई देता है, उसका आधार नामकर्म है। शुभनामकर्म के बन्ध के कारण जैनागमों में अच्छे व्यक्तित्त्व की उपलब्धि के चार कारण माने गये हैं- 1. शरीर की सरलता, 2. वाणी की सरलता, 3. मन या विचारों की सरलता, 4. अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना या सामंजस्यपूर्ण जीवन / शुभनामकर्म का विपाक उपर्युक्तं चार प्रकार के शुभाचरण से प्राप्त शुभ व्यक्तित्त्व का विपाक चौदह प्रकार का माना गया है- (1) अधिकारपूर्ण प्रभावक वाणी (इष्ट-शब्द) (2) सुन्दर सुगठित शरीर (इष्ट-रूप) (3) शरीर से निःसृत होने वाले मलों में भी सुगंधि (इष्ट-गंध) (4) जैवीय-रसों की समुचित्ता (इष्ट-रस) (5) त्वचा का सुकोमल होना (इष्ट-स्पर्श) (6) अचपल योग्य गति (इष्ट-गति) (7) अंगों का समुचित स्थान पर होना (इष्ट-स्थिति) (8) लावण्य (9) यशःकीर्ति का प्रसार (इष्ट-यशःकीर्ति) (10) योग्य * शारीरिक-शक्ति (इष्ट-उत्थान, कर्म, बलवीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम) (11) लोगों को रुचिकर लगे- ऐसा स्वर (12) कान्त स्वर (13) प्रिय स्वर और (14) मनोज्ञ स्वर। __ अशुभ नामकर्म के कारण- निम्न चार प्रकार के अशुभाचरण से व्यक्ति (प्राणी) को अशुभ व्यक्तित्त्व की उपलब्धि होती है- (1) शरीर की वक्रता, (2) वचन की वक्रता (3) मन की वक्रता और (4) अहंकार एवं मात्सर्य-वृत्ति या असामंजस्यपूर्ण जीवन /
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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