________________ जैन धर्म एवं दर्शन-615 जैन- आचार मीमांसा -147 अल्प लोभ- ये सोलह कषाय हैं। उपर्युक्त कषायों को उत्तेजित करने वाली नौ मनोवृत्तियाँ (उपकषाय) हैं- (1) हास्य, (2) रति (स्नेह, राग), (3) अरति (द्वेष), (4) शोक, (5) भय, (6) जुगुप्सा (घृणा), (7) स्त्रीवेद (पुरुष-सहवास की इच्छा), (8) पुरुषवेद (स्त्री-सहवास की इच्छा), (7) नपुंसकवेद (स्त्री और पुरूष- दोनों के सहवास की इच्छा)। - मोहनीय-कर्म विवेकाभाव है और उसी विवेकाभाव के कारण अशुभ की ओर प्रवृत्ति की रुचि होती है। अन्य परम्पराओं में जो स्थान अविद्या का है, वही स्थान जैन-परम्परा में मोहनीय-कर्म का है। जिस प्रकार अन्य परम्पराओं में बन्धन का मूल कारण अविद्या है, उसी प्रकार जैन-परम्परा में बन्धन का मूल कारण मोहनीय-कर्म / मोहनीय-कर्म का क्षयोपशम ही आध्यात्मिक-विकास का आधार है। 5. आयुष्य कर्म . .. जिस प्रकार बेड़ी स्वाधीनता में बाधक है, उसी प्रकार जो कर्म-परमाणु आत्मा को विभिन्न शरीरों में नियत अवधि तक कैद रखते हैं, उन्हें आयुष्य-कर्म कहते हैं। यह कर्म निश्चय करता है कि आत्मा को किस शरीर में कितनी समयावधि तक रहना है। आयुष्य कर्म चार प्रकार का है- (1) नरक आयु, (2) तिर्यंच आयु (वनस्पति एवं पशु-जीवन) (3) मनुष्य आयु और (4) देव आयु। आयुष्य-कर्म के बन्ध के कारण- सभी प्रकार के आयुष्य-कर्म के बन्ध | का कारण शील और व्रत से रहित होना माना गया है, फिर भी किस प्रकार के आचरण से किस प्रकार का जीवन मिलता है, उसका निर्देश भी जैन आगमों में उपलब्ध है। स्थानांगसूत्र में प्रत्येक प्रकार के आयुष्य-कर्म के बन्ध के चार-चार कारण माने गये हैं(अ) नारकीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण- महारम्भ (भयानक हिंसक कम), (2) महापरिग्रह (अत्यधिक संचय-वृत्ति), (3) मनुष्य, पशु आदि का वध करना, (4) मांसाहार और शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन / (ब) पाशविक-जीवन की प्राप्ति के चार कारण- (1) कपट करना (2) रहस्यपूर्ण कपट करना (3) असत्य भाषण (4) कम ज्यादा तौल-माप करना। कर्म-ग्रन्थ में प्रतिष्ठा कम होने के भय से पाप का