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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-609 जैन- आचार मीमांसा-141 उनके अनुसार उनके विभाग किये जाते हैं। जैनदर्शन के अनुसार कर्म आठ प्रकार के हैं- 1. ज्ञानावरणीय 2. दर्शनावरणीय 3. वेदनीय 4. मोहनीय 5. आयुष्य 6. नाम 7. गोत्र और 8. अन्तराय। 1. ज्ञानावरणीय कर्म जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाश को ढंक देते हैं, उसी प्रकार जो कर्मवर्गणाएँ आत्मा की ज्ञानशक्ति को ढंक देती हैं और ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनती हैं, वे ज्ञानावरणीय कर्म कही जाती हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धन के कारण- जिन कारणों से ज्ञानावरणीय-कर्म के परमाणु आत्मा से संयोजित होकर ज्ञान-शक्ति को कुंठित करते हैं, वे छ: हैं1. प्रदोष- ज्ञानी का अवर्णवाद (निन्दा) करना एवं उसके अवगुण निकालना। 2. निह्नव- ज्ञानी का उपकार स्वीकार न करना अथवा किसी विषय को जानते हुए भी उसका अपलाप करना। 3. . अन्तराय- ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनना, ज्ञान एवं ज्ञान के साधन पुस्तकादि को नष्ट करना। 4. मात्सर्य- विद्वानों के प्रति द्वेष-बुद्धि रखना, ज्ञान के साधन पुस्तक आदि में अरुचि रखना। 5.... असादना- ज्ञान एवं ज्ञानी पुरुषों के कथनों को स्वीकार नहीं करना, उनका समुचित विनय नहीं करना। 6. उपघात- विद्वानों के साथ मिथ्याग्रहयुक्त विसंवाद करना, अथवा स्वार्थवश सत्य को असत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करना। उपर्युक्त छ: प्रकार का अनैतिक आचरण व्यक्ति की ज्ञानशक्ति के कुंठित होने का कारण है। ज्ञानावरणीय-कर्म का विपाक- विपाक की दृष्टि से ज्ञानावरणीय-कर्म के कारण पाँच रूपों में आत्मा की ज्ञान-शक्ति का आवरण होता है(1) मतिज्ञानावरण- ऐन्द्रिक एवं मानसिक ज्ञान क्षमता का अभाव, (2) श्रुतज्ञानावरण- बौद्धिक अथवा आगमज्ञान की अनुपलब्धि,
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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