________________ जैन धर्म एवं दर्शन-608 जैन- आचार मीमांसा-140 सम्भव नहीं है। सांख्य एवं योग-दर्शन में क्लेश या बन्धन के पाँच कारण हैं- अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग, द्वेष, अभिनिवेश। इनमें भी अविद्या प्रमुख है। शेष चारों * उसी पर आधारित हैं। न्याय-दर्शन भी जैन और बौद्धों के समान ही राग-द्वेष एवं मोह को बन्धन का कारण मानता है। इस प्रकार, लगभग सभी दर्शन प्रकारान्तर से राग-द्वेष एवं मोह (मिथ्यात्व) को बन्धन का कारण मानते हैं। बन्धन के चार प्रकारों से बन्धनों के कारण का सम्बन्ध .. जैन कर्म-सिद्धान्त में बन्धन के चार प्रारूप कहे गए हैं- 1. प्रकृति बन्ध, 2. प्रदेश-बन्ध, 3. स्थिति-बन्ध, 4. अनुभाग बन्ध। 1. प्रकृति बन्ध- बन्धन के स्वभाव का निर्धारण प्रकृति बन्ध करता है। यह, यह निश्चय करता है कि कर्मवर्गणा के पुद्गल आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि किरा शक्ति को आवृत्त करेंगे। 2. प्रदेश बन्ध- यह कर्मपरमाणुओं की आत्मा के साथ संयोजित होने वाली मात्रा का निर्धारण करता है, अतः यह मात्रात्मक होता है। 3. स्थिति बन्ध-कर्म परमाणु कितने समय तक आत्मा से संयोजित रहेंगे और कब निर्जरित होंगे- इस काल-मर्यादा का निश्चय स्थिति-बन्ध करता है, अतः यह बन्धन की समय-मर्यादा का सूचक है। 4. अनुभाग बन्ध- कर्मों के बन्धन और विपाक की तीव्रता एवं मन्दता का निश्चय करना- यह अनुभाग बन्ध का कार्य है। दूसरे शब्दों में, यह बन्धन की तीव्रता या गहनता का सूचक है। उपरोक्त चार प्रकार के बन्धनों में प्रकृति-बन्ध एवं प्रदेश बन्ध का सम्बन्ध मुख्यतया योग अर्थात् कायिक, वाचिक एवं मानसिक-क्रियाओं से है, जबकि बन्धन की तीव्रता (अनुभाग) एवं समयावधि (स्थिति) का निश्चय कर्म के पीछे रही हुई कषाय-वृत्ति और मिथ्यात्व पर आधारित होता है। संक्षेप में, योग का सम्बन्ध प्रदेश एवं प्रकृति बन्ध से है, जबकि कषाय का सम्बन्ध स्थिति एवं अनुभाग-बन्ध से है। आठ प्रकार के कर्म और उनके बन्धन के कारण जिस रूप में कर्मपरमाणु आत्मा की विभिन्न शक्तियों के प्रकटन का अवरोध करते हैं और आत्मा का शरीर से सम्बन्ध स्थापित करते हैं,