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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-602 जैन - आचार मीमांसा -134 मात्र आस्रव नहीं है, वरन् उनका बन्ध भी होता है और विपाक भी होता है, अतः आस्रव के शुभास्रव और अशुभासव- ये दो विभाग करने से काम नहीं बनता, बल्कि बन्ध और विपाक में भी दो-दो भेद करने होंगे। इस कठिनाई से बचने के लिए ही पाप एवं पुण्य को स्वतंत्र तत्त्वों के रूप में गिन लिया गया है। फिर भी, जैन–विचारणा निर्वाण-मार्ग के साधक के लिए दोनों को हेय और त्याज्य मानती है, क्योंकि दोनों ही बन्धन के कारण हैं। वस्तुतः, नैतिक-जीवन की पूर्णता शुभाशुभ या पुण्य-पाप से ऊपर उठ जाने में है। शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) का भेद जब तक बना रहता है, नैतिक पूर्णता नहीं आती। अशुभ पर पूर्ण विजय के साथ ही व्यक्ति शुभ (पुण्य) से भी ऊपर उठकर शुद्ध दशा में स्थित हो जाता है। ऋषिभाषित सूत्र में ऋषि कहता है कि पूर्वकृत पुण्य और पाप संसार संतति का मूल है। आचार्य कुन्दकुन्द पुण्य और पाप- दोनों के बन्धन का कारण कहकर दोनों के बन् कत्व का अन्तर भी स्पष्ट कर देते हैं। समयसार में वे कहते हैं किअशुभ कर्म पाप (कुशील) और शुभ कर्म-पुण्य (सुशील) कहे जाते हैं, फिर भी पुण्यकर्म एवं पापकर्म- दोनों ही संसार (बन्धन) का कारण हैं। जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी लौह-बेड़ी के समान ही व्यक्ति को बन्धन में रखती है, उसी प्रकार जीवकृत सभी शुभाशुभ कर्म भी बन्धन के कारण हैं। फिर भी आचार्य पुण्य को स्वर्ण-बेड़ी कहकर उसंकी पाप से किंचित् श्रेष्ठता सिद्ध कर देते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र का कहना है कि पारमार्थिक दृष्टि से पुण्य और पाप- दोनों में भेद नहीं किया जा सकता, क्योंकि अन्तोगत्वा दोनों ही बन्धन हैं। यही बात पं. जयचन्द्रजी भी कहते हैं पुण्य पाप दोऊ करम, बन्धरूप दुई मानि / शुद्ध आत्मा जिन लयो, नमूं चरन हित जानि।। जैनाचार्यों ने पुण्य को निर्वाण की दृष्टि से हेय मानते हुए भी उसे निर्वाण का सहायक तत्त्व स्वीकार किया है। निर्वाण प्राप्त करने के लिए अन्ततोगत्वा पुण्य को त्यागना ही होता है, फिर भी वह निर्वाण में ठीक उसी प्रकार सहायक है, जैसे साबुन वस्त्र के मैल को साफ करने में सहायक है, फिर भी उसे अलग करना होता है, वैसे ही निर्वाण या
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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