________________ जैन धर्म एवं दर्शन-601 जैन- आचार मीमांसा -133 दृष्टि से विचार करते समय कर्ता के आशय को भुलाया नहीं जा सकता। सामाजिक जीवन में आचरण के शुभत्व का आधार __ . यह सत्य है कि कर्म के शुभत्व और अशुभत्व का निर्णय अन्य प्राणियों या समाज के प्रति किए गये व्यवहार अथवा दृष्टिकोण के सन्दर्भ में होता है, लेकिन अन्य प्राणियों के प्रति हमारा कौन-सा व्यवहार या दृष्टिकोण शुभ होगा और कौन-सा अशुभ होगा- इसका निर्णय किस आधार पर किया जाये? भारतीय चिन्तन ने इस सन्दर्भ में जो कसौटी प्रदान की है, वह यही है कि जैसा व्यवहार हम अपने लिए प्रतिकूल समझते हैं, वैसा आचरण दूसरे के प्रति नहीं करना और जैसा व्यवहार हमें अनुकूल है, वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना- यही शुभाचरण है। इसके विपरीत, जो व्यवहार हमें अपने लिए प्रतिकूल लगता है, वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना और जैसा व्यवहार हमें अपने लिए अनुकूल लगता है वैसा व्यवहार दूसरों के प्रति नहीं करना अशुभाचरण है। भारतीय ऋषियों का यही संदेश है। संक्षेप में, सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत्-दृष्टि ही व्यवहार के शुभत्व का प्रमाण है। __जैन-दर्शन के अनुसार, जिस व्यक्ति में संसार के सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि है, वही नैतिक कर्मों का स्रष्टा है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि समस्त प्राणियों को जो अपने समान समझता है और जिसका सभी के प्रति समभाव है, वह पाप-कर्म का बन्ध नहीं करता। सूत्रकृतांग के अनुसार भी धर्म-अधर्म (शुभाशुभत्व) के निर्णय में अपने समान दूसरे को समझना चाहिए। शुभ और अशुभ से शुद्ध की ओर ... जैन दृष्टिकोण- जैन-विचारणा में शुभ-अशुभ अथवा मंगल-अमंगल की वास्तविकता स्वीकार की गयी है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार तत्त्व नौ हैं, जिनमें पुण्य स्वतन्त्र तत्त्व है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष, ये सात तत्त्व गिनाए हैं, इनमें पुण्य और पाप को नहीं गिनाया है, लेकिन यह विवाद महत्वपूर्ण नहीं, क्योंकि जो परम्परा उन्हें स्वतंत्र तत्त्व नहीं मानती है, वह भी उनको आसव-तत्व के अन्तर्गतमान लेती है। यद्यपि पुण्य और पाप