________________ जैन धर्म एवं दर्शन-597 जैन- आचार मीमांसा-129 पुण्य या कुशल कर्मों का वर्गीकरण भगवतीसूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ-प्रवृत्तियों को पुण्योपार्जन का कारण कहा गया है। स्थानांगसूत्र में नौ प्रकार के पुण्य निरूपित हैं 1. अन्नपुण्य- भोजनादि देकर क्षुधात की क्षुधा-निवृत्ति करना। 2. पानपुण्य- तृषा (प्यास) से पीड़ित व्यक्ति को पानी पिलाना। 3. लयनपुण्य- निवास के लिए स्थान देना, जैसे- धर्मशालाएँ आदि बनवाना। 4. शयनपुण्य- शय्या, बिछौना आदि देना / 5. वस्त्रपुण्य- वस्त्र का दान देना। 6. मनपुण्य- मन से शुभ विचार करना। जगत् के मंगल की शुभकामना करना। 7. वचनपुण्य- प्रशस्त एवं संतोष देनेवाली वाणी का प्रयोग करना। 8. कायपुण्य - रोगी, दुःखित एवं पूज्य जनों की सेवा करना। 9. नमस्कारपुण्य - गुरुजनों के प्रति आदर प्रकट करने के लिए उनका अभिवादन करना। पुण्य और पाप (शुभ और अशुभ) की कसौटी ...शुभाशुभ या पुण्य-पाप के निर्णय के दो आधार हो सकते हैं- (1) कर्म का बाह्य-स्वरूप अर्थात् समाज पर उसका प्रभाव और (2) कर्ता का अभिप्राय / इन दोनों में कौन-सा आधार यथार्थ है- यह विवाद का विषय रहा है। गीता और बौद्ध-दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही कृत्यों की शुभाशुभता का सच्चा आधार माना गया। गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि जिसमें कर्तृत्व भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि निर्लिप्त है, वह इन सब लोगों को मार डालें, तो भी यह समझना चाहिए कि उसने न तो किसी को मारा है और न वह उस कर्म से बन्धन को प्राप्त होता है। धम्मपद में बुद्ध-वचन भी ऐसा ही है (नैष्कर्म्यस्थिति को प्राप्त) ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजासहित राष्ट्र को मारकर भी निष्पाप होकर जाता है। बौद्धदर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही पुण्य-पाप का आधार माना गया