________________ जैन धर्म एवं दर्शन-569 जैन- आचार मीमांसा-101 स्वार्थमूलक-सुखवाद से प्रारम्भ करके बुद्धिवाद, पूर्णतावाद और मूल्यवाद एक अनेक नैतिक-प्रतिमान प्रस्तुत किए गए हैं। यदि हम नैतिक मूल्यांकन का आधार नैतिक-आवेगों को स्वीकार करते हैं, तो नैतिक मूल्यांकन में एकरूपता सम्भव नहीं होगी, क्योंकि व्यक्तिनिष्ठ नैतिक-आवेगों में विविधता स्वाभाविक है। नैतिक-आवेगों की इस विविधता को समकालीन विचारक एडवर्ड वैस्टरमार्क ने स्वयं स्वीकार किया है। उनके अनुसार, इस विविधता का कारण व्यक्तियों के परिवेश, धर्म और विश्वासों में पाई जाने वाली भिन्नता है। जो विचारक कर्म के नैतिक-औचित्य एवं अनौचित्य के निर्धारण के लिए विधानवादी-प्रतिमान अपनाते हैं और जाति, समाज, राज्य धर्म द्वारा प्रस्तुत विधि-निषेध (यह करो और यह मत करो) की नियमावलियों को नैतिक-प्रतिमान स्वीकार करते हैं, उनमें भी प्रथम तो इस प्रश्न को लेकर ही मतभेद है कि जाति (समाज), राज्य-शासन और धर्मग्रन्थ द्वारा प्रस्तुत अनेक नियमावलियों में से किसे स्वीकार किया जाए? पुनः, प्रत्येक जाति, राज्य और धर्मग्रन्थ द्वारा प्रस्तुत ये नियमावलियाँ भी अलग-अलग हैं। इस प्रकार, बाह्य-विधानवाद नैतिक-प्रतिमान का कोई एक सिद्धान्त प्रस्तुत कर पाने में असमर्थ हैं। समकालीन अनुमोदनात्मक-सिद्धान्त जो नैतिक-प्रतिमान को वैयक्तिक, रुचि-सापेक्ष अथवा सामाजिक एवं धार्मिक अनुमोदन पर निर्भर मानते हैं, किसी एक सार्वभौम नैतिक-प्रतिमान का दावा करने में असमर्थ हैं। व्यक्तियों का रुचिवैविध्य और सामाजिक–आदर्शों में पाई जाने वाली भिन्नताएँ सुस्पष्ट ही हैं। धार्मिक अनुशंसा भी अलग-अलग होती है, एक धर्म जिन कर्मों का अनुमोदन करता है और उन्हें नैतिक ठहराता है, दूसरा धर्म उन्हीं कर्मों को निषिद्ध और अनैतिक ठहराता है। वैदिक-धर्म और इस्लाम जहाँ पशुबलि को वैध मानते हैं, वहीं जैन, वैष्णव और बौद्ध धर्म उसे अनैतिक और अवैध मानते हैं। निष्कर्ष यही है कि वे सभी सिद्धान्त किसी एक सार्वभौम नैतिक-प्रतिमान का दावा करने में असमर्थ हैं, जो नैतिकता की कसौटी, वैयक्तिक-रुचि, सामाजिक अनुमोदन अथवा धर्मशास्त्र की अनुशंसा को मानते हैं। निष्कर्ष यही है कि वे सभी सिद्धान्त किसी एक सार्वभौम नैतिक-प्रतिमान का दावा करने में असमर्थ हैं, जो नैतिकता की