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________________ आगम निबंधमाला याचकों के लिये ही मात्र होने से जैन श्रमण को लेने में अदीन वृत्ति नहीं होती है, धर्म की लघुता होती है / सीमित दानपिंड होने पर अन्य को अंतराय होती है / किंतु जहाँ प्रचुर आहार दिया जाता है, खिलाया जाता है और दाता खुद भी वहीं खाते हैं, तो अपनी विधि विवेक के साथ जैन साधु आवश्यक होने पर ग्रहण कर सकता है / वे दानपिंड और दानकुल इस प्रकार के होते हैं- (1) जहाँ पर विशिष्ट उच्च भोज्य दानपदार्थ, अग्र(श्रेष्ठ) पदार्थ, लड्डु वगैरह बाँटे जा रहे हो (2) मर्यादित बना समस्त आहार हमेशा याचकों को दिया जाता है वह 'नितिय पिंड' (पूर्ण) कहा गया है (3) आहार जो बना है उसमें से आधा भाग अलग कर के जिन घरों में दान कर दिया जाता है। उसी तरह (4) चौथाई और (5) षष्टांश, अष्टमांश, तृतीयांश आहार दान में कर दिया जाता है / ये विभाग रूप दानपिंड लेने में दीनता और अंतराय दोष की मुख्यता के कारण ये दानपिंड लेने के लिये उन उन दानपिंड बाँटने वालों के घर गोचरी जाना नहीं कल्पता है / इन्हीं का निशीथ सूत्र के दूसरे उद्देशे में लघुमासिक प्रायश्चित्त विधान है / ये सभी मर्यादित आहार के दान कुल के कथन है। किंतु जहाँ दानपिंड की कोई सीमा नहीं है, वहाँ अंतराय दोष नहीं होता है और वहाँ जैन श्रमणों को यदि ससम्मान देने की भावना हो तो अदीनता भी नहीं होती है / ऐसी भोजनशालाओं आदि से यथा प्रसंग जैन श्रमण गोचरी कर ले तो वह इन सूत्रों में निषिद्ध नहीं है। ज्ञाता सूत्र आदि में साध्वियों के दानशाला में गोचरी जाने का वर्णन है / निबंध-२६ जीमणवार-बडे भोजन में गोचरी बहुत बडे जीमणवार में उस जीमणवार के विशिष्ट स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों के आसक्ति भाव से श्रमण को गोचरी जाना नहीं कल्पता है / इस अपेक्षा आसक्ति के कारण उस दिशा में भी जाना मना है तथा जिस जीमणवार-बडेभोज(संखडी) में वहाँ जाकर ठहरना पडता हो, रहना पडता हो तो वहाँ भी नहीं जाना / आहार की दुर्लभता
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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