________________ आगम निबंधमाला उत्कंठा-जिज्ञासा संतोषाई गई / संथारा दीक्षा समये आवी पडनारी मानसिक विडंबनाओथी समाधि क्यांय पण खडित न बने ते ज खूब महत्वन छे। तमारु मनोबल दृढ ज नहि सुदृढ छे, एटले वांधो नहि आवे। आगम विषयक अढलक साहित्य तमारी कलमें लखाय छे ओ आनंदनी वात छे... / तमारी शुभ भावनानी अनुमोदना / -दः मुक्तिश्रमण विजय / प्रश्न-अपना भावि दीक्षा-संथारे का इस तरह प्रकाशन क्यों ? उत्तर- संयम और श्रावकव्रत समझदारी से लेने वाले प्रायः सभी साधक धर्म के रंग में रंग जाते हैं, सिद्धात्मा बनने की प्रबल उत्कंठा जिन्हें जागृत हो जाती है धर्म उनकी रग रग में समाविष्ट हो जाता है तभी उन्हें देशविरति-अणुव्रत अथवा सर्वविरति-संयम ग्रहण करने की, जिनशासन में व्रताराधना कर शीघ्रातिशीघ्र संसार से मुक्त होने के परम लक्ष्य की एवं आत्मपरिणाम और आत्मार्थीपना तथा साधक जीवन की प्राप्ति होती है। . ऐसी आत्माओं के लिये आगम में तीन-तीन मनोरथ जीवन में प्रतिदिन अंतर्मन से, रसायन पूर्वक, जिंदगीभर करने की प्रबल प्रेरणा और उसका प्रकृष्ट फल ठाणांग सूत्र में दर्शाया है तथा रोग, आतंक आदि आ जाने पर साधक आहार त्याग करे ऐसा संदेश है, न कि अस्पतालों के चक्कर खाकर, सूइयाँ शरीर में खुबा खुबाकर, खून, ग्लुकोझ नसों में भर भर कर कुमोत से मरे / / मेरे इस प्रकाशन का अंतर्मन का भाव और उद्देश्य यही है कि प्रत्येक साधक हमेशा तीसरा मनोरथ भी पांच मिनट भावपूर्वक रोज करे और मन में संथारे का निश्चित करता जावे तो उसे एक दिन अपने आयुष्य का अनुभव जरूर हो सकता है / ऐसा श्रुतज्ञानी अनुमान, उसे अपने ज्ञानावरणीय कर्म की महान निर्जरा से, अपनी सांसारिक कुडली देखने से, हस्तरेखा के अनुभव से, निमित्त ज्ञानी ज्योतिषी व्यक्तियों के संयोग से किसी भी तरह हो जाता है / उसका स्वयं का आगम अनुसारी लक्ष्य भी बन जाता है. कि दो तिहाई आयु बीतने के बाद फिर कभी भी सोपक्रमी आयु टूट सकता | 253