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________________ आगम निबंधमाला होता है और देवों के श्वासोश्वास अल्प होते हैं। (5-7) उससे क्रमशः मन, वचन और वैक्रिय पुद्गलपरावर्तन बडे हैं और लम्बे काल में पूर्ण होते हैं। जो पुद्गल परावर्तन बड़े हैं वे जीव ने आज तक कम किये हैं और जो छोटे है वे जीव ने ज्यादा किये हैं। इस अपेक्षा से जीव ने (1) सबसे कम वैक्रिय पुद्गल परावर्तन किये हैं और (7) सबसे अधिक कार्मण पुद्गल परावर्तन किये हैं / शेष पाँचों का उल्टे क्रम से अधिक-अधिक समझ लेना चाहिये / . निबंध-१३२ अठारह पाप स्वरूप तथा भेद यहाँ उद्देशक-५ में क्रोधादि के पर्याय शब्द इस प्रकार कहे हैं(१) क्रोध के पर्यायवाची 10 शब्द- क्रोध, कोप, रोष, दोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, चांडिक्य, भंडण, विवाद। (2) मान के पर्यायवाची 12 शब्द- मान, मद, दर्प, स्तंभ, गर्व, आत्मोत्कर्ष, परपरिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नत, उन्नाम, दुर्नाम / (3) माया के पर्यायवाची 15 शब्द- माया, उपधि, नियडी, वलय, गहन, णूम, कलंक, कुरूप, जिह्मता, किल्विष, आदरणता,गृहनता,वंचनता, प्रतिकुंचनता,साई (सादि)योग। (4) लोभ के पर्यायवाची 16 शब्द- लोभ, इच्छा, मूच्र्छा, कांक्षा, गृद्धि, तृष्णा, भिज्जा, अभिज्जा, आशंसना, प्रार्थना, लालपनता, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नंदिराग / ये सभी शब्द एकार्थक है तथापि इनके व्युत्पत्ति परक आदि अलग-अलग अर्थ भी होते हैं। जो विवेचन युक्त भगवतीसूत्र में देखना चाहिये। हिंसा आदि पाँच पापों के अनेक नाम और पर्यायवाची शब्द प्रश्नव्याकरण सूत्र में हैं। शेष 9 पापों के अर्थ इस प्रकार हैं- (10) राग- पुत्र आदि स्वजन पर स्नेह (11) द्वेष-अप्रीति (12) कलह-स्थूल वचनों से किसी को ज्यों-त्यों बोलना, वचन युद्ध / (13) अभ्याख्यान-अविद्यमान दोषों का आरोप लगाना, मिथ्या कलंक चढाना / (14) पैशुन्य-चुगली करना, पीठ पीछे दोष प्रगट करना (15) परपरिवाददूसरों की निंदा करना, अवगुण-अपवाद- अवहेलना करना, तिरस्कार-पराभव करना। (16) रति-अरति-प्रतिकूल संयोगों में जो उद्वेग होता है वह अरति है और मनानुकूल संयोगों में हर्ष आनंद के जो परिणाम होते हैं वे रति रूप है। (17) माया-मृषा-कपट युक्त झूठ, ठगाई, धोखेबाजी आदि में जो कपट प्रपंच का व्यवहार होता है वह माया-मृषा पाप है। (18) मिथ्यादर्शन शल्य-खोटी श्रद्धा, जिन वचन से विपरीत श्रद्धा / अठारह पापस्थानों में यह अंतिम पाप एवं विशिष्ट पाप होने से शल्य-कंटक की उपमा से युक्त कहा गया है। .. 246
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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