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________________ आगम निबंधमाला रख कर खाला है, पुद्गलानंदी नहीं बनता है, खिन्न भी नहीं होकर, शांत समाधि भाव रखकर, स्वाद का लक्ष्य नहीं बनाकर, देहपूर्ति के लिये जरूरी होने से, जो जैसा प्राप्त हुआ है उसे अच्छा खराब कुछ भी नहीं बोलते हुए एवं नहीं सोचते हुए आहार करता है, वह श्रमण उक्त तीनों दोष नहीं लगाता है / जो श्रमण निर्दोष प्राप्त आहार को (1) दो कोष उपरांत आगे ले जाकर खावे पीवे, (2) प्रथम प्रहर में आहार प्राप्त कर चतुर्थ प्रहर में उसे खावे-पीवे, (3) दिन में प्राप्त आहार को सूर्यास्त बाद तक या रात्रि में खावे, (4) शरीर को अनावश्यक ऐसा अधिक मात्रा में बिन जरूरी खावे तो वह श्रमण ये चारों दोष युक्त आहार करने वाला होता है। 1. साधु को अन्यत्र आहार ले जाने की क्षेत्रमर्यादा दो कोश की है। 2. नवकारसी में लाये पदार्थ तीन प्रहर तक खाने-पीने की ही काल मर्यादा है / 3. रात्रि भोजन का साधु को त्याग आजीवन होता है / 4. ब्रह्मचर्य समाधि एवं स्वास्थ्य सुरक्षा के लिये तथा सदा ऊणोदरी तप के लिये श्रमण को अल्प या मर्यादित आहार करना होता है / बिना विवेक के या आसक्ति से अमर्यादित खाना श्रमण जीवन के योग्य नहीं होता है / श्रमण का पूर्ण निर्वद्य-निर्दोष आहार- सावद्य प्रवृत्तियों के पूर्ण त्यागी एवं शरीर के संस्कार श्रृंगार से रहित श्रमण-निग्रंथ, अचित्त, त्रस जीव रहित, 42 दोष रहित आहार करे / खुद आरंभ करे-करावे नहीं, संकल्प करे नहीं, निमंत्रित-क्रीत-उद्दिष्ट-आहार ग्रहण न करे, नवकोटि शुद्ध आहार संयम यात्रा निर्वाह के लिये करे; सुड-सुड, चव-चव आवाज न करते हुए, नीचे न गिराते हुए, अल्पमात्रा में भी स्वाद न लेते हुए आहार करे; मांडला के 5 दोष न लगावे / जल्दीजल्दी या अत्यंत धीरे-धीरे आहार न करे; विवेक युक्त समपरिणामों से आहार करे, तो यह शस्त्रातीत निर्वद्य आहार करना कहा जाता है। निबंध-१२४ परमावधिज्ञानी चरमशरीरी होते प्रस्तुत उद्देशक-७ में पाँच इन्द्रिय के विषयों की अपेक्षा काम | 227
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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