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________________ आगम निबंधमाला असंख्यप्रदेशात्मक ही है / अतः असंख्यप्रदेशी इस लोक में अनंत जीवों की अपेक्षा अनंत रात-दिन और परित्त जीवों की अपेक्षा परित्त रात-दिन हुए हैं, होते हैं, बीते हैं, बीतते हैं, नष्ट हुए है और नष्ट होवेंगे। इस प्रकार बिना किसी असमंजस के सहज सरलता युक्त उत्तर और अपने भगवान पार्श्व प्रभू के सन्मान से भरा उत्तर सुनकर स्थविर संतुष्ट हुए और अपने मतिश्रुत की निर्मलता से निर्णय भी कर पाये कि ये ही २४वें तीर्थंकर है / ऐसा निर्णय हो जाने पर वंदन नमस्कार करके वे प्रभु महावीर के शासन में पुन: महाव्रतारोपण कर दीक्षित हो गये / छेदोपस्थानीय चारित्र की मर्यादा में उपस्थित होकर तप-संयम का आराधन कर, कितने ही श्रमण उसी भव में मोक्षगामी हुए और कई देवलोक में उत्पन्न हुए / ऐसा भव्य जीवों के समाधान और उद्धार का प्रसंग केवलज्ञान से जानकर तीर्थंकर भी पूर्व तीर्थंकर के नाम से निरूपण कर सकते हैं / कभी ऐसे प्रसंग मर सामने अन्य मतावलंबी हो तो उनके मान्य शास्त्रों के स्थलनिर्देश पूर्वक भी तत्त्व निरूपण और शंका का समाधान किया जा सकता है / उद्देश्य सही होने से सामने वाले पर सही प्रभाव होता है और उसका भला ही होता है, उद्धार हो जाता है। निबंध-११८ अबाधा काल और आयुष्यकर्म विचारणा __ आठो कर्मों का यहाँ तीसरे उद्देशक में जघन्य उत्कृष्ट बंधकाल बताया गया है / उत्कृष्ट स्थिति के बंध के साथ यह वाक्य है यथाज्ञानावरणीय कर्म बंध में- उक्कोसेणं तीसं सागरोवम कोडाकोडीओ, तिण्णि य वाससहस्साई अबाहा, अबाहुणिया कम्मठिई कम्मणिसेगो। अर्थ- ज्ञानावरणीय कर्म का उत्कृष्ट बंध 30 कोडाकोडी सागरोपम का होता है उसमें से तीन हजार वर्ष का अबाधाकाल होता है / इस अबाधाकाल जितना छोडकर शेष कर्म स्थिति में कर्म पुद्गलों की निषेक रचना होती है / तात्पर्य यह है कि अबाधाकाल जितनी तीन हजार वर्ष की स्थिति में कर्मप्रदेश बंध न होकर शेष 30 कोडाकोडी | 217
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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