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________________ आगम निबंधमाला .. यह क्रिया लगती है / पाँचवें छठे आदि गुणस्थान वालों को व्रतप्रत्याख्यान रुचि हो जाने से यह क्रिया नहीं लगती है / इस क्रिया में वर्तमान के साधन संयोग पुरुषार्थ का कोई प्रभाव नहीं होने से हाथी और कीडी या राजा और रंक सभी को यह क्रिया अव्रत के कारण लगती रहती है। इस भव में कुछ भी किये बिना लगने वाली इस अव्रत क्रिया से बचने के लिये सीधा और सरल उपाय है कि सम्यक् तत्त्वों का अवबोध एवं श्रद्धान के साथ साथ व्रतों के स्वरूप को भी समझकर श्रद्धान करके त्याग-प्रत्याख्यान रूप विरति भावों को शीघ्र स्वीकार करके यथाशक्य व्रत, त्याग-प्रत्याख्यानो का अवधारण करते रहना चाहिये / निबंध-१०६ आधाकर्मी आहार और उसका फल संकल्पपूर्वक जान-बूझकर आधाकर्म आहार का सेवन करने से जैनश्रमण को 7 कर्मों की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारों बंध की वृद्धि होती है; हलके कर्म प्रगाढ बनते हैं; अल्पस्थिति दीर्घ बनती है; अशाता वेदनीय का अधिकतम बंध होता है यावत् अनंत संसार में परिभ्रमण होता है / क्यों कि वह श्रमण अपने आचार धर्म का अतिक्रमण करता है, छ काय जीवों के घात की परवाह नहीं करता है एवं दयाभाव की उपेक्षा करता है; जिनके शरीर का आहार करता है उन जीवों पर अनुकंपा नहीं करता है; उनके जीवन की अपेक्षा नहीं रखता है। प्रासुक एवं अषणीय आहार भोगने वाला श्रमण सातों कर्म की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों की वृद्धि नहीं करके उन कर्मों को शिथिल करता है / क्यों कि शुद्ध आहार गवेषक भिक्षु अपने आचारधर्म का संरक्षण करता है, छ काय जीवों की अनुकंपा से भावित बनता है / उन-उन जीवों के जीवन की अपेक्षा रखता है यावत् संसार से मुक्त हो जाता है / वास्तव में संयम में अस्थिर चित्त बन जाने वाली आत्मा में 200
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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