________________ आगम निबंधमाला अत्यंत आवश्यक है। शास्त्र में विनय को सब गुणों का मूल कहा गया हैं / विनय गुण से संपन्न व्यक्ति समस्त गुणों को हाँसिल कर सकता है। विनय-नम्रता के विकास के लिये जीवन में से मान कषाय,अहंभाव, घमंडभावों को तथा जाति, कुल, तप या ज्ञान के मद को छोडना जरूरी है और उसके लिये सदा आत्मा में अभ्यास, जागृति और संस्कारों को पुष्ट करते रहना चाहिये / अहंकार व्यक्ति की नम्रता को नष्ट करने वाला है, अत: मार्दवगुण को धारण करने के लिये मुनि को मानकषाय से हमेशा दूर रहना चाहिये / (5) लाघवे- लघुभूत / मुनि संसार के भार से तो मुक्त हो गया होता है। उसे चाहिये कि वह संयम जीवन में भी मानसिक विचारणाओं ए वं कायिक प्रवृत्तियों से अभ्यासपूर्वक मुक्त होता जाय / अन्यत्र लाघवे के स्थान पर 'सोए' शौच शब्द है, जिसका अर्थ भी यही है कि विचारों से पवित्र रहे, शुद्ध-निर्मल भावों में रहे / इस तरह मानसिक बोझ से और कर्मबंध से मुनि हल्का फूल सा लघुभूत रहे / (6) सच्चे- मुनि सत्यनिष्ठ रहे। प्रत्येक आचरण में, वाणी में सत्यता ईमानदारी को धारण करे / झूठ-असत्य का सेवन कदापि नहीं करे / हास्य, भय से भी झूठ न बोले, झूठे कर्तव्य नहीं करे / हित, मित एवं मर्यादित वचन बोले / (7) संयमे- महाव्रत, समिति, गुप्ति, इन्द्रिय निग्रह में पूर्ण सावधान रहे / संयम समाचारी का सम्यक् परिपालन करे / ' (8) तवे- उपवास आदि तथा विनय, स्वाध्याय आदि बाह्य एवं आभ्यंतर सभी प्रकार के तप में आत्मा को भावित करे / संयम जीवन के आवश्यक कार्य, गुरु आज्ञा तथा सेवा के अतिरिक्त अवशेष समय स्वाध्याय-अध्ययन में व्यतीत करे / देह दुक्खं महाफल इस सूत्र को लक्ष्य में रखकर शक्य हो जितना त्याग-तप अवश्य बढाते रहना चाहिये। किसी से उपवास न भी होता हो तो धीरे-धीरे अभ्यास से, वैराग्य से, मानस संस्कारित करने से तथा लगन धगस रखने से कुछ भी दुष्कर नहीं समझना चाहिये / इस प्रकार मुनि जीवन बाह्य आभ्यंतर तप युक्त होवे। (9) चियाए- त्याग / इसमें कषायों का त्याग, खान पान के द्रव्यों का त्याग, प्राप्त आहारादि में से अन्य श्रमणों का दान-प्रदान समर्पण रूप त्याग वगैरह का समावेश होता है। संक्षेप में द्रव्यभाव-ऊणोदरी और 1178